Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 80
________________ ४९८ Immmm जैनहितैषीEDIT मैंने कहा-" हाँ किया करता था-ऐश्वर्य्यके संग पापका जो यत्तु प्रत्युपकारार्थः फलघुद्दिश्य वा पुनः। मिश्रण था उस पापको धोनेके लिए।" दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥” हमने अन्यमनस्क होकर पूछा-" स्वामीउन्होंने कहा- ठीक है । मैं क्यों दान जी, आपका जन्मस्थान कहाँ है ? " करता था—जानते हो ? मेरे पिता सामान्य स्वामीजीन गम्भीर होकर कहा-" इस अवस्थासे करोड़पति हो गये थे। पर उन्होंने बातको जाने दो।" किस तरह रुपया पैदा किया था, यह किसीको मालूम न था। सब लोग यही जानते थे कि वे स्वामीजी कभी कभी बालकोंकी तरह हँसते सूद अधिक लेते हैं और इसीमें उन्होंने यह धन कमाया है; पर उनके ऐश्वर्य्यका मूलधन कहाँसे थे। वे हमारे प्रस्तावको सुनकर खूब ही खिल आया-किसीको मालूम न था । ग्राममें खिलाकर हँसे । हम सब लोग भी हँस रहे थे। मशहूर था-" प्रस्ताव और कुछ नहीं उनकी तस्वीर उतरवा नेका था । हमारे मित्र सुरेश्वरने शौकिया फोटो___ स्वामीजी यह सोचकर कि बिनापूछे ही वे ' ग्राफी सीखी थी। वह स्वामीजीकी तस्बीर खींचअपने पर्व जीवनकी बात कह रहे हैं चुप हा के लिए बहत व्यस्त था। स्वामीजी बालकोंकी गये । पर हमें बड़ा कौतुक हो गया था । हमने तरह हँसकर कहने लगे-'छिः छिः इस नश्वर । पूछा-"क्या मशहूर था ?" देहका इतना सम्मान !' उन्होंने कहा-" यह कि हमारे बापको ___पर सुरेश्वर छोड़नेवाला नहीं था। उसने यक्षका धन मिल गया है । उस यक्षके धनको कहा-“आप तो उस चित्रको राखिएगा ही नहीं। पाकर कोई सुखी नहीं होता-उसे कोई * आप एक बार ध्यानमग्न होकर बैठ जाइए । मैं खर्च नहीं कर सकता । पिता बहुत ही कंजूस आपका चित्र उतार लूंगा। आपको कुछ भी देर थ आर व कभा प्रसन्न भा नहा रहत था" नहीं लगेगी।" ___ यह कह कर स्वामीजी चुप हो गये । उनके ___ स्वामीजी बड़े ही दयालु थे। इस जरासी बातमें ललाट पर चिन्ताकी रेखायें खिंच गई । वे भनमें भी उन्हें हमारे दःख पानेका ख्याल हआ और सिर्फ न मालूम क्या क्या सोच रहे थे। उन्होंने एक इसीलिए वे चित्र उतरवानेके लिए बैठ गये । साथ हमसे कहा-" मरते समय पिता हमसे एक हिरन के चमडे पर वे पद्मासनसे आ बैठे । कह गये कि 'मैंने बुरी तरह इस धनको इकटा क्या भीषण परिवर्तन था । हम दोनों ही विस्मित किया था। इसके सिवाय उन्होंने और कुछ भी थे। शरीरके साथ मनका दृढ़ सम्बन्ध है, यह नहीं कहा-हाँ, इतना अवश्य कहा था कि बात तो हम रोज ही प्रत्यक्ष किया करते थे; 'यदि किसीको मालूम हो जाता कि मैंने किस पर शरीर और मनका बन्धन इतना दृढ़ है-यह तरह रुपया इकट्ठा किया है तो मुझे जरूर बात हमने आजसे पहले कभी नहीं जानी थी । जेलमें जाना पड़ता।" उस दुबले, पतले, गेरुए वस्त्र पहरनेवाले और स्वामी जी काँप उठे । एक दो मिनट इधर मुण्डित-शिर सन्न्यासीको देखकर कुछ भी श्रद्धा उधर देखकर उन्होंने कहा-" इसी लिए मैं दान नहीं होती थी। वह भले घरका आदमी ज़रूर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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