Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ IMILImmummOMARUMAR जैनहितैषी। ४६२ विष्णपुराण सारे पुराणोंसे प्राचीनतम न देवोंके लिए प्रयुक्त करते हैं । तीसरे दोनों ही होने पर भी अतिशय प्राचीन है। इसके तृती- धर्मवाले बुद्धदेव या तीर्थकरोंकी एक ही प्रकायांशके सत्रहवें और अठारहवें अध्याय रकी पाषाणप्रतिमायें बनवाकर चैत्यों या स्तूकेवल जैनोंकी निन्दासे पूर्ण हैं। नग्नदर्श- पोंमें स्थापित करते हैं और उनकी पूजा नसे श्राद्धकार्य भ्रष्ट हो जाता है, और करते हैं । स्तूपों और मूर्तियोंमें इतनी अधिक नग्नके साथ संभाषण करनेसे उस दिनका पुण्य सदृशता है कि कभी कभी किसी मूर्ति और नष्ट हो जाता है। शतधनु नामक राजाने स्तूपका यह निर्णय करना कि यह जैन है एक नग्न पाषण्डसे संभाषण किया था, इस या बौद्ध, विशेषज्ञोंके लिए भी कठिन हो कारण वह कुत्ता, गीदड़, भेडिया, गीध और जाता है। इन सब बाहरी समानताओंके मोरकी योनियोंमें जन्म धारण करके अन्तमें सिवाय मतवादमें भी दोनों धर्मोकी कहीं कहीं अश्वमेध यज्ञके जलसे स्नान करनेपर मुक्ति- सदृशता दिखती है; परन्तु उन सब विषयों में लाभ कर सका । जैनोंके प्रति (वैदिकोंको) प्रबल हिन्दूधर्मके साथ जैन और बौद्ध दोनोंका विद्वेष निम्नलिखित श्लोकसे प्रकट होता है:- ही प्रायः ऐक्यमत्य है। इस प्रकार बहुत सी न पठेत् यावनी भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। समानता होने पर भी दोनोंमें बहुत कुछ हस्तिना पीडयमानोऽपि न गच्छजिनमन्दिरम् ॥ विरोध है । पहला विरोध, बौद्ध क्षणिकवादी " यद्यपि जैन लोग अनन्त मुक्तात्मा- है। पर जैन क्षणिकवादकी ऐकान्तिकता ओंकी उपासना करते हैं, तो भी वास्तवमै स्वीकार नहीं करता। जैनधर्म कहता है कि वे व्यक्तित्वविरहित पारमात्म्य स्वभावको ही कर्मफलान्तक जन्मान्तरवादके साथ क्षणिक पूजा करते हैं । व्यक्तित्वरहित होनेके कारण कारण वादका सामञ्जस्य नहीं हो सकता । क्षणिकही जैनपूजापद्धतिमें वैष्णव और शाक्त- वाद माननेसे कर्मफल मानना असंभव है । मतके समान भक्तिकी विचित्र तरङ्गभङ्गोंकी * शाका जैनधर्ममें अहिंसा नीतिकी जितनी ज्यादती संभावना बहुत ही कम है। है उतनी बौद्धोंमें नहीं है। अन्य द्वारा मारे "बहुत लोग यह भूल कर रहे थे कि बौद्ध । हुए जीवका मांस खानेकी बौद्धधर्म मनाई मत और जैनमतमै भिन्नता नहीं है । पर दाना नहीं करता, उसमें स्वयं हत्या करना ही धर्नामें कुछ अंशामें समानता होने पर भी मना है । बौद्धदर्शनके पञ्च स्कन्दके असमानताकी कमी नहीं है । समानता, समान कोई मनोवैज्ञानिक तत्त्व भी जैनदर्शनमें पहली बात तो यह है कि दोनोंमें अहिंसा- नहीं माना गया । बौद्धदर्शनमें जीवपर्याय नीतिकी अतिशय प्रधानता है । दूसरे जिन, अपेक्षाकृत सीमाबद्ध है, जैनदर्शनके समान सुगत, अर्हत्, सर्वज्ञ, तथागत, बुद्ध आदि नाम उदार और व्यापक नहीं है। हिन्दुधर्मके बौद्ध और जैन दोनों ही अपने अपने उपास्य समान जैनधर्ममें मक्तिके मार्गमें जिसप्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102