Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 57
________________ KAHAANI MMMAMAMAILORIORIEMAMAILOMACHAR सूक्तिमुक्तावली और सोमप्रभाचार्य। THATTIMinitionfirmfimfNTRAYANTRY ४७५ भक्तः श्रीमुनिचन्द्रसूरिसुगुरोः श्रीमानदेवस्य च पासक है तो संप्रदायके मिथ्यामोहमें न फँस श्रीमान् सोऽजितदेवसूरिरभवत् षट्तर्कदुग्धाम्बुधिः। कर, केवल तत्त्वदृष्टिसे, इसमे रहे हुए गुणोंका सद्यः संस्कृतगद्यपद्यलहरीपूरेण यस्याप्रभ और गूंथे हुए सत्योंका, विवेकपुरःसर ग्रहण क्षिप्ता वादिपरम्परा तृणतुलां धत्तेस्म दूरीकृता । श्रीमानाभूद्विजयसूरिरमुष्य शिष्यो और उपासन करें । जीवन-प्रद सुमन्द येन- -स्मरस्य शरान् गृहीत्वा + । पवनको श्वास द्वारा अपने हृदयमें भरते हुए कृप्त चतुर्भिरनघं शरयन्त्रमग्रे मनुष्य, जिस प्रकार उसके उत्थानस्थानका विश्वं तदेकविशिखेन वशं च निन्ये ॥ विचार नहीं करते, उसी प्रकार जीवनको उन्नत श्रीहेमचन्द्रसूरिर्बभूव शिष्यस्तथापरस्तस्य । भवहतये तेन कृतो द्विःसन्धानप्रबन्धोऽयम् ॥ बनानेवाले उत्तम-वचनोंको अपने अन्तःकरणमें एकाहनिष्पन्नमहाप्रबन्धः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नबन्धुः। प्रविष्ट करते समय उनके उद्भव-स्थानका विचार श्रीपालनामा कविचक्रवर्ती सुधीरिमं शोधितवान् प्रबन्धम् भी विचार नहीं करना चाहिए । सत्यके ___ इन आवतरणों और प्रमाणोंसे विज्ञ-पाठ- स्वरूपका साक्षात्कार करनेवाले तत्वज्ञोंका कोंको निश्चय हो गया होगा कि जो सूक्ति- जगतके प्रति पवित्र सन्देश है कि-'बालादपि मुक्तावलीके कर्ता हैं वे ही हेमकुमारचरितादिके हितं ग्राह्यम् । शमस्तु सर्वेषाम् ।। कर्ता हैं । गुर्वावली और क्रियारत्नसमुच्चयमें सम्पादकीय सम्मतिजिनका उल्लेख है वे सोमप्रभ तथा हेमकुमार- १ सूक्तिमुक्तावलीमें संघाधिकार' नामका चरित और सिंदूरप्रकरके का सोमप्रभ भी एक चार श्लोकोंका प्रकरण है जिसमें 'संघ' की एक ही हैं-भिन्न नहीं । - ऐसी दशामें प्रंशसा की गई है । यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदासोमप्रभाचार्यके श्वेताम्बर होनेमें किसी प्रकार- यमें भी चतुर्विध संघकी प्रशंसा यत्र तत्र का सन्देह नहीं रहता। मिलती है। परन्तु वह इस रूपमें इतनी बढा अब हम अपने वक्तव्यको समाप्त करते चढ़ाकर कहीं भी नहीं मिलती जितनी उक्त हुए विज्ञवाचकोंसे एक निवेदन करते हैं कि संघाधिकारमें है । संघकी भक्तिसे तीर्थकरका ___"The Suktamuktavali of Somaprabhacharya, ( No. 469 ), may also be mentioned in this connection. Somaprabhacharya represents himself to be the pupil of Vi jayasinha who occupied the seat of Highअवश्य ही समान-भावसे कल्याण कर सकती priest after Ajitadev; (K. K.; Appendix है । इसलिए यदि आप गुणग्राहक और सत्यो- II II). All these names occur in the success ion list of the pontiffs of the Tapagachcha, + यह काव्य कुछ अशुद्ध और अपूर्ण है । इसकी and Somaprabhacharya seems to have lived in the latter part of the twelth केवल एक ही प्रति-सो भी बहुत जीर्ण-पाटनके एक entury. ( Ind. Ant., Vol. XI, p.254.)" भाण्डारमें है। -लेखक । Refort for the Search for Sanskrit Inss डॉक्टर जी. आर, भाण्डारकरने भी अपनी रिपोर्ट in the Bombay Presidency (1882-1883. यही लिखा है। देखिए by Bhandarkar--p. 42. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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