Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 55
________________ .CHARLALLEBARABACURRBABAADHAAR S सूक्तिमुक्तावली और सोमप्रभाचार्य। ४७३ अणहिल्लपुरमें, ये बहुत रहा करते थे। कवि- जाती है । विक्रम संवत् १४६६ में इसकी चक्रवर्ती श्रीपाल और प्रसिद्ध धनिक दोहदि- रचना हुई है । अर्थात् सोमप्रभाचार्यके, लग की वसतियोंमें बहुत करके इनकी स्थिति भग २०० वर्ष बाद यह लिखी गई है। हुआ करती थी। ये अपने समयके एक बड़े इस गुर्वावलीमें सोमप्रभाचार्य तथा उनके गुरु भारी विद्वान् और सम्मान्य आचार्य थे। और दादा-गुरुका उसी क्रमसे उल्लेख है हेम-कुमार-चरित, सुमतिनाथचरित, शृङ्गार- जैसा कि सूक्तिमुक्तावलीमें है । देखिएवैराग्य-तरंगिणी, आदि अनेक ग्रन्थोंकी, ___ अष्ट-हयेश ( ११७८ ) मितेऽब्दे, संस्कृत और प्राकृत भाषामें, इन्होंने रचना विक्रमकालादिवंगतो भगवान् । श्रीमुनिचन्दमुनीन्द्रो की है। इनकी प्रतिभा अलौकिक थी । ददातु भद्राणि सङ्घाय ॥ इन्होंने एक काव्य बनाया है जिसके जुदा तस्मादभूदजितदेवगुरुगरयिान् जुदा प्रकारके १०० अर्थ किये हैं । इस प्राच्यस्तपःश्रुतनिधिर्जलाधिर्गुणानाम् । काव्य-चमत्कृतिसे मुग्ध होकर विद्वानोंने, श्रीदेवसूरिरपरश्च जगतत्प्रसिद्धो वादीश्वरोऽस्तगुणचन्द्रमदोऽपि बाल्ये ॥ इन्हें ' शतार्धिक ' की महती उपाधि प्रदान तेष्वादिमाद्विजयसिंहगुरुर्बभासे की थी। इनके पदपर सुप्रसिद्ध श्रीजग- विद्यातपोभिरभितः प्रथमोऽथ तस्मात् । चन्द्रसूरि प्रतिष्ठित हुए थे जिनसे बृहद्गच्छ सोमप्रभो मुनिपतिविदितः शतार्थी त्यासीद्गणीव मणिरत्नगुरुर्द्वितीयः॥ का नाम तपागच्छ पड़ा और जो आजतक प्रचलित है। अर्थात्-संवत् ११७८ में श्रीमुनितपागच्छके आचार्योंकी पट्ट-परंपराके , चन्द्रसूरि स्वर्गको सिधारे । उनके दो प्रधान ५१ वें नम्बर पर मुनिसुन्दरसूरिका नाम , शिष्य हुए-एक अजितदेवसूरि और दूसरे है। ये आचार्य भी बड़े भारी विद्वान् और - देवसूरि । अजितदेवके शिष्य विजयसिंहसूरि तेजस्वी माने जाते हैं । अध्यात्मकल्पद्रुम हुए। उनके दो शिष्य थे जिनमें बड़े सोमप्रभ और उपदेशरत्नाकर आदि ग्रन्थ इन्हींके , ' और छोटे मणिरत्नसूरि थे। यही वृत्तांत बनाये हुए हैं। इन ग्रन्थोंमें 'गर्वावली, अन्य पट्टावलियोंमें तथा ग्रन्थों में भी लिखा नामका भी ५०० पद्योंका एक ग्रन्थ है। हुन हुआ है । उदाहरणके लिए, षड्दर्शनसमुयह ऐतिहासिक होकर रचनामें भी मनोहर चयक प्रासद्ध टाका-कार श्रागुणरत्नमारक हैं। इसमें श्रमण भगवान् श्रीमहावीरसे लेकर, क्रियारत्नसमुच्चयकी प्रशस्ति लीजिएकतोन, अपने समय तकके तपागच्छके आ. नित्यं पपौ काजिकमेकमम्भचार्योंका संक्षिप्त परंतु संशोधित इतिहास स्तत्याज सविकृतीश्च सम्यग् । लिखा है। तपागच्छकी पट्टावलियोंमें यह १-जगचन्द्रसूरि इन्ही मणिरत्नके शिष्य थे जिनपट्टावली सबसे पुरानी और प्रामाणिक गिनी से तपागच्छ प्रसिद्ध हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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