Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 43
________________ AAKAMANACRIMALIBALLAHABADMOTI जैनधर्म और जैनदर्शन । ४६१ इसके सम्बन्धमें जितने विधिनिषेध हैं उन रक्तसे लाल होकर सब तरहके सात्विक सबको मानकर चलना इस बीसवीं शताब्दीके भावोंका विरोधी हो गया था। जैन कहते हैं जीवनसंग्राममें युक्तियुक्त और संभवपर है कि उस समय यज्ञकी इस नृशंस पशुहत्याके या नहीं, यह विचारणीय है। विरुद्ध जो कई मत खड़े हुए थे, उनमें जैन __“जैनधर्ममें अहिंसाको इतनी प्रधानता सबसे पहले थे। 'मुनयो वातवसनाः' कहक्यों दी गई है, यह ऐतिहासिकोंकी गवेष- कर ऋग्वेदमें जो नग्नमुनियोंका उल्लेख है, णाके योग्य है । जैनसिद्धान्तमें अहिंसा जैनोंका कथन है कि वे ही जैन दिगम्बर शब्दका अर्थ व्यापकसे व्यापकतर होकर, संन्यासी हैं। अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थोंमें वह गीतोक्त "बुद्धदेवको लक्ष्य करके जयदेवने कहा हैनिष्काम धर्मके रूपान्तर भावमें ग्रहण किया निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं गया है। तो भी, पहले अहिंसा शब्द साधा सदयहृदय दर्शितपशुधातम्' रण प्रचलित अर्थमें ही व्यवहृत होता था, किन्तु यह अहिंसातत्त्व जैनधर्मके साथ इस विषयमें कोई भी सन्देह नहीं है । वैदिक , इस प्रकार अङ्गाङ्गी भावमें संयुक्त है कि ". जैनधर्म बौद्धधर्मके बहुत पहलेका स्वीकृत युगमें यज्ञ-क्रियामें पशुहिंसा निरतिशय निष्ठुर सीमा पर जा पहुंची थी । इस क्रूर कर्मके - होनेपर पशुघातात्मक यज्ञविधिक विरुद्ध विरुद्ध उस समय कितने ही अहिंसावादी - पहले खड़े होनेकी प्रशंसा बुद्धदेवकी अपेक्षा सम्प्रदायोंका उदय हुआ था, यह बात एक - जैनधर्मको ही मिलेगी। वेदविधिकी निन्दा तरहसे सुनिश्चित है । वेदमें ' मा हिंस्यात् " करनेके कारण हमारे शास्त्रोंमें चार्वाक, जैन सर्व भूतानि ' यह साधारण उपदेश रहनेपर और बौद्ध पाषण्ड या नास्तिक मतके नामसे भी, यज्ञ कर्ममें पशुहत्याकी अनेक विशेष विख्यात हैं। इन तीनों सम्प्रदायोंकी झूठी विधियोंका उपदेश होनेके कारण, वह साधा- निन्दाकरक जिन शास्त्रकारान अपना साम्प्ररण विधि केवल विधिके रूपमें ही पर्यवसित दायिक संकीर्णताका परिचय दिया है, उनके होगई थी, पद पद पर व्याहत और अति- इतिहासकी पर्यालोचना करनेसे मालूम होगा क्रान्त होकर उसका कल्याणकर उपदेश कि जो ग्रन्थ जितना ही प्राचीन है, उसमें विस्मृतिके गर्भमें विलीन हो गया था और बौद्धोंकी अपेक्षा जैनोंपर उतना ही अधिक अन्तमें ‘पशु यज्ञके लिए ही बनाये गये हैं,, गाली गलौज है। अहिंसावादी जैनोंके निरीह यह अद्भुत मतवाद प्रचलित हुआथा *। इसके मस्तकके ऊपर किसी किसी शास्त्रकारने तो फलसे वैदिक कर्मकाण्ड आलम्भित पशओंके श्लोकपर श्लोक ग्रथित करके मूसलधार वर्षा - की है। उदाहरणके तौरपर विष्णुपुराणको * यज्ञार्थे पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा। अतस्त्वां घातयिष्यामि तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ ले लीजिए। अभी तककी खोजोंके अनसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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