Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 25
________________ पुस्तक-परिचय।। mmmmmmmmmmm ४४३ चाहिए । इसके उड़ाये बिना देशकी उन्नति नहीं . ४ गद्यचिन्तामणि। . हो सकती । यह अस्वाभाविक है । जो इसके तंजौर-ट्रेनिंगस्कूलके अध्यापक श्रीयुत टी. भक्त हैं उनके यहाँ भी यह पाली नहीं जाती एस. कुप्पूस्वामी शास्त्री जनसाहित्यके बड़े ही है । प्रकृति भी अब इसे रहने नहीं देना चाहती। प्रेमी है। आपकी आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं इत्यादि । यह विषय जितने महत्त्वका है, उतनी है, तो भी आपने कई अलभ्य जैन ग्रन्थोंको गंभीरतासे लेखक महाशयने इस पर विचार नहीं छपाकर प्रकाशित किया है। महाकवि वादीकिया । हमारी समझमें यह इस तरह जोशमें भसिंहका यह अपूर्व काव्य भी आपकी ही कृपासे आकर उड़ा देनेकी चीज नहीं है, इस पर जैनसमाजके दृष्टिगोचर हुआ था। पाठक यह सब ओरोंसे विचार होना चाहिए। जानकर प्रसन्न होंगे कि उक्त काव्यका अब यह ३ समाधितंत्र। दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है। यह संस्कसमाधितंत्र आचार्य पूज्यपादका बनाया हुआ रण पहले संस्करणकी अपेक्षा अधिक शुद्ध प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसकी एक मराठी और एक और सुन्दर है। कपड़ेकी बढ़िया जिल्द बँधी हिन्दी टीकाकी समालोचना जैनहितैषीमें हो हुई है । मूल्य वही दो रुपया है। आशा है कि चुकी है । अब उसीकी यह एक गुजराती टीका हमारे संस्कृतज्ञ पाठक इस संस्करणकी एक एक भी प्रकाशित हुई है। इसे डाक्टर भूखणदास प्रति मँगाकर शास्त्रीजीके उत्साहको बढ़ायँगे। परभूदासने पर्वत धर्मार्थोकी पुरानी भाषाटीकाके शास्त्रीजी हिन्दी नहीं जानते, इस कारण उन्हें आधारसे लिखा है और शा कस्तूरचन्द धर्मच- आर्डरका पत्र अँगरेजी या संस्कृतमें लिखना न्दजीकी सहायतासे प्रकाशित करके विनामूल्य चाहिए। वितरण किया है । इसके गुजराती अनुवादको ५प्रभंजनचरित। पढ़नेका तो हमें समय नहीं मिला, इससे हम लेखक, पं० घनश्यामदासजैन न्यायतीर्थ उसके विषयमें तो कुछ राय नहीं दे सकते हैं; और प्रकाशक, जैनग्रन्थकार्यालय, ललितपुर परन्तु ग्रन्थके मूल श्लोक इतने अशुद्ध (झांसी)। पृष्ठसंख्या ४२ । मूल्य चार आने । पदच्छेदादिका खयाल रक्खे बिना छपे हैं कि 'यशोधरचरित ' नामक किसी संस्कृतग्रन्थकी जितने आजतक शायद ही किसी जैनग्रन्थमें छपे पीठिकामें प्रभंजनमुनिका चरित वर्णित है। हों । श्लोकोंकी संख्यातक नहीं दी गई है और पण्डितजीने उसीका यह हिन्दी रूपान्तर लिखा और ग्रन्थान्तरोंके तथा मूलके श्लोकोंमें कोई भी है; परन्तु यह बतलानेकी कृपा नहीं की कि भेद नहीं रक्खा गया है। ऐसे महत्त्वके ग्रन्थोंका उक्त 'यशोधरचरित' किसका बनाया हुआ है इस प्रकार असावधानीसे प्रकाशित होना बड़े ही और कहाँ पर है, जिसकी पीठिका या उत्थाखेदका विषय है। हम प्रकाशक महाशयकी, इस ग्रन्थको बिनामूल्य प्रकाशित करनेके कारण " निकामें यह चरित वर्णित है। उपलब्ध यशोजितनी प्रशंसा करेंगे, उससे कहीं अधिक उनकी धरचरितोंमें तो ऐसा कोई नहीं है जिसमें इस कारण निन्दा करेंगे कि उन्होंने ग्रन्थको इस प्रकारकी विस्तृत उत्थानिका हो । यदि सावधानीके साथ प्रकाशित नहीं किया। यह परिश्रम किया जाय तो संभव है कि मूलग्रन्थपरसे १७५ पृष्ठकी पुस्तक प्रकाशकके पास नवापुरा ग्रन्थकर्ताका पता चल जाय । ग्रन्थके प्रारंभमें सूरतसे ( शायद पोस्टेज भेजनेपर ) मिल प्रतिज्ञा की गई है कि 'प्रभंजनगुरोश्चरितं वक्ष्ये' सकेगी। अर्थात् प्रभंजन गुरुका चरित कहता हूँ । इसपर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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