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शरदागम ।
. (ले० -श्रीयुत पं० रामचरित उपाध्याय । )
( १ )
अति दुखदाई नीति दुर्जनों की होती है, पर सुखदाई वही सज्जनोंकी होती है । मेघों का उत्पात सदा जग स्मरण करेगा, पर आया अब शरत्काल दुख हरण करेगा ॥ ( २ )
धन पाकरके नीच अन्यको दुख देते हैं, वे ही हो धन-हीन सभीको सुख देते हैं । क्या करते थे मेघ वारिसे पूर्ण रहे जब, शान्त सुखद अति विशद हुए हैं वे कैसे अब ॥ (३) धुली हुई सी मही हुई है, जल निर्मल है, धूलि - कणोंसे हीन व्योम कैसा उज्ज्वल है । अन्याय के बाद भूप यदि न्यायी आवे, क्यों न देशकी दशा तुरंत ही पलटा खावे ॥ (8)
काश कमल केवड़े अमित फूले हैं कैसे, मेघकी मृत्यु तुरत भूले हैं कैसे । या उत्पीड़क - पतन दुखद क्यों होगा जगमें ॥ कण्टक कैसे कभी रुचेगा अपने मगमें,
(५) आबसते हैं सुभग राज्यमें जैसे सज्जन, . हंस और आबसे यहाँ वैसे ही खञ्जन । पर क्रमशः खद्योत दूर होते जाते हैं, दुष्ट कभी क्या भली जगह रहने पाते हैं ॥
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( ६ )
इन्द्र-धनुष अब नहीं दृष्टि- गोचर होता है, परदेशीका राग अधिक अस्थिर होता है । पर नभमें शुक पंक्ति छटा क्या दिखा रही है, मनो ऐक्यकी प्रथा हमें यह सिखा रही है ॥
उद्धतपनको छोड़ सूखती हैं सरितायें, पातित्रत ज्यों पाल रही हों पतिव्रतायें । उनके दोनों कूल रहित हो गये पंकसे, ज्यों सतियोंके चरित हीन हों दुष्कलंकसे ॥ ( ८ )
चातक दादुर मोर मौन हो छिपे कहीं हैं, कोयल भी निज कूक सुनाती कभी नहीं है । धूर्तों की धूर्तता सदा क्या चल सकती है, या विधिकी लिपि कभी किसी विधि टल सकती है ॥ ( ९ )
जब अज्ञान-तमिस्र मनुजका खो जाता है, निजहित में तब दत्तचित्त वह हो जाता है । मेघाडम्बर दूर हुआ है बाधक जबसे, निज उन्नतिमें लगा हुआ है यह जग तबसे ॥ ( १० ) नृप उदारकी प्रजा स्वत्व पाती है जैसे, सुख जीवनका और तत्त्व पाती है जैसे । उसी भाँति व्यापार - लग्न संसार हुआ है, शरदागमसे सत्य बड़ा उपकार हुआ है ॥
( ११ )
सुख-साधनके लिए यही उत्तम अवसर है, शीत-भीति है नहीं, नहीं आतपका डर है । सब होकर के एक, देशके प्राण बचाओ, दुख दानवको शीघ्र देशसे दूर भगाओ ॥
(७)
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