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HAIRLINOMIC
जनहित
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वृत्तिको गढ़नेवाले और क्षात्रवृत्तिको दबाने- और निर्वाहके-जीविकाके–अभावमें उनका वाले उतने ही अधिक सामान पायेंगे । जैन- अस्तित्व ही संभव नहीं। यही कारण है धर्ममेंसे क्षत्रियोंके कम करनेवाले या लुप्त करने- जो दक्षिण और कर्नाटक प्रान्तके थोड़ेसे वाले इसके सिवाय और भी कारण होंगे, उपाध्यायोंको छोड़कर सारे भारतवर्षमें जैनजिनका विचार विशेषज्ञोंके द्वारा होगा; परन्तु ब्राह्मणोंका अभाव है। दक्षिण और कर्नाहमारी समझमें यह भी एक कारण हो टकमें जो थोडेसे उपाध्याय हैं उनकी भी सकता है । संभव है कि यह केवल अवस्था अच्छी नहीं है । उन्हें निर्माल्य या भ्रम ही हो।
देवद्रव्यसे ही अपनी जीविका चलानी पड़ती ५ ब्राह्मणों और शद्रोंके अभाव पर भी है। आदिपुराणोक्त संस्कारादि कर्म करानेसे लगे हाथ विचार हो जाना चाहिए । ब्राह्म- जैनब्राह्मण अपना निर्वाह कर सकते हैं, ऐसा णोंकी वृत्ति यजन-याजन और पठन-पाठन कहा जाता है परन्तु एक तो अभी यह बात ही आदि बतलाई गई है। पर जैनोंके यहाँ विवादग्रस्त है कि यह संस्कारपद्धति आदिइसकी आवश्यकता नहीं । जैनधर्ममें उपदेश पुराणके पहले भी थी या नहीं और दूसरे आदिका कार्य मुनि करते हैं। पुराणों में जहाँ इन कर्मोंसे इनेगिने लोगोंका ही निर्वाह हो कहीं किसीकी विद्याशिक्षाका जिक्र आता है, सकता है-लाखोंका नहीं । वहाँ यही लिखा रहता है कि अमुक राजपुत्र ६ दक्षिण और कर्नाटकमें जो जैन या राजपुत्रीने मुनि महाराजके पास जाकर ब्राह्मण दिखलाई देते हैं, हमारी समझमें वे विद्याध्ययन किया। पूजन पाठ और स्वाध्याय भगवज्जिनसेनाचार्यकृत आदिपुराणकी, उस करनेका श्रावकोंको स्वयं अधिकार है । ये समयकी परिस्थिति के अनुसार रची हुई,नवीन उनके नित्य षटकर्मोमेंसे दो प्रधान कर्म हैं। वर्णाश्रमसृष्टिके फल हैं। वे एक प्रतिभाशाली जैनधर्म यह मानता नहीं कि मैं आपके लिए और अधिकारी आचार्य थे, इसमें सन्देह नहीं; प्रतिदिन पूजा अनुष्ठान या पुस्तकपारायण पर यह रचना चिरप्रचलित जैनधर्मकी मूल किया करूँ और उसका फल आपको मिले । चढे प्रकृतिके अनुकूल नहीं थी इस कारण यथेष्ट हुए द्रव्यको लेना या मन्दिरोंको लगी हुई भमि समाहत नहीं हुई और उत्तर भारतमें तो या जागीरकी आमदनीसे निर्वाह करना जैनधर्ममें इसका बीन ही नहीं जमा । मना है । इसे ' निर्माल्य ' माना है जिसका ७ हम यह नहीं कहते कि ब्राह्मण लोग खाना महान् पाप है । ऐसी अवस्थामें जैन- जैनधर्मके धारक ही नहीं हुए या हमारे ब्राह्मणोंका निर्वाह ही नहीं हो सकता आचार्योंने ब्राह्मणोंको जैन नहीं बनाया; नहीं,
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