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जैनहितैषीTITUTTTTTTTTTTTTTTTTTT
मान समयके प्रसिद्ध फरासीसी दार्शनिक क्योंकि-" तस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं वर्गसोन ( Bergson ) का दर्शन हिरा- भवति ।" क्लीटियनके मतवादका ही रूपान्तर है। " वेदान्तके समान बौद्धदर्शनमें कोई वेदान्त दर्शनके नित्यवाद और बौद्धदर्शनके त्रिकाल अव्यभिचारी नित्यवस्तु नहीं मानी क्षणिकवादमें भी यह सदाका दार्शनिक गई । बौद्ध क्षणिकवादके मतसे " सर्व क्षणं विवाद प्रकाशमान हो रहा है। वेदान्तके क्षणं । " जगत्स्रोत अप्रतिहत या अरोकमतसे केवल नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-सत्य- गतिसे बराबर बह रहा है-क्षणभरके लिए स्वभाव चैतन्य ही सत् है, शेष जो कुछ भी कोई वस्तु एक ही भावसे एक ही है वह केवल नामरूपका विकार मायाप्रपञ्च- अवस्थामें स्थिर होकर नहीं रह सकती। असत् है । शङ्कराचार्यने सत्शब्दकी जो परिवर्तन ही जगतका मूलमंत्र है । जो इस व्याख्या की है उसके अनुसार इस दिखलाई क्षणमें मौजूद है, वह आगामी क्षणमें ही देनेवाले जगत्प्रपञ्चकी कोई भी वस्तु सत् नहीं नष्ट होकर रूपान्तरित हो जाता है। इस हो सकती । “ यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति प्रकार अनन्त मरण और अनन्त जीवनोंकी तत्सत्, यद्विषया बुद्धिर्व्यभिचरति तद- अनन्त क्रीडायें इस विश्वनाटकमें लगातार सत् ।" गीता, शंकरभाष्य २-१६ । हुआ करती हैं। यहाँ स्थिति, स्थैर्य, निभूत भविष्यत् वर्तमान इन तीन कालों में जिस त्यता असंभव है। वस्तके सम्बन्धमें बुद्धिका व्यभिचार नहीं “स्याद्वादी जैनदर्शन वेदान्त और बौद्धहोता, वह सत् है और जिसके सम्बन्धमें मतकी आंशिक सत्यता स्वीकार करके होता है वह असत् है । जो वर्तमान सम- कहता है कि विश्वतत्त्व या द्रव्य नित्य भी यमें है, वह यदि अनादि अतीतके किसी है और अनित्य भी है । वह उत्पत्ति, समयमें नहीं था और अनन्त भविष्यतके ध्रुवता और विनाश इन तीन प्रकारकी भी किसी समयमें नहीं रहेगा, तो वह सत् परस्परविरुद्ध अवस्थाओंसे युक्त है । वेदान्तनहीं हो सकता-वह असत् है। सत्शब्द परि- दर्शनमें जिस प्रकार स्वरूप और तटस्थ वर्तनका प्रतियोगी है। जिसमें परिवर्तन होता लक्षण कहे गये हैं, उसी प्रकार जैनदर्शनमें है, हुआ है और होनेकी संभावना है वह प्रत्येक वस्तुको समझानेके लिए दो तरहसे असत् है । परिवर्तनशील असद्वस्तुके साथ निर्देश करनेकी व्यवस्था है। एकको कहते हैं वेदान्तका कोई सम्पर्क नहीं है। वेदान्तदर्शन निश्चयनय और दूसरेको कहते हैं व्यवहार केवल अद्वैत सद्ब्रह्मका तत्वानसन्धान करता नय । स्वरूपलक्षणका जो अर्थ है, ठीक वही है। वेदान्तकी यही प्रथम बात है ' अथातो अर्थ निश्चयनयका है । वह वस्तुके निज ब्रह्मजिज्ञासा । और यही अन्तिम बात है। भाव या स्वरूपको बतलाता है। व्यवहार
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