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। जैनधर्मके पालनेवाले वैश्य ही क्यों ?
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पिछले पृष्ठोंमें श्रीयुत ब्र० भगवान- कर सकते हैं चाहे वे किसी भी जाति या दीनजीका राजनीतिके मैदानमें आओ' शीर्षक देशके हों । ऐसी दशामें यह संभव नहीं कि लेख प्रकाशित किया गया है। इस लेखमें एक किसी समयमें, भगवान् महावीरके समयमें या स्थल पर यह प्रश्न उठाया गया है कि पहले और कभी, केवल क्षत्रिय ही इसके अनुयायी जैनधर्मके धारण करनेवाले क्षत्रिय ही अधिक हों। यह दूसरी बात है कि पुराण पुरुष तीर्थकर थे, तब वे पीछे वैश्य कैसे हो गये ? और चक्रवर्ती नारायण आदि सब क्षत्रिय ही हुए इसका समाधान यह किया गया है कि जब हैं; परन्तु इससे यह सूचित नहीं होता है कि वे लोग अपना लोकहितका कार्य समाप्त कर ब्राह्मण वैश्य आदि जैनधर्मके उपासक नहीं चुके, तब व्यापारमें लग गये और बनियें थे । स्वयं महावीरस्वामीके गणधर इन्द्रभूति या वैश्य कहलाने लगे। परन्तु हमारी सम- आदि जो भगवानके मार्गके खास प्रवर्तक थे झमें यह उत्तर सन्तोषप्रद नहीं । यह प्रश्न ब्राह्मण थे । यह अवश्य स्वीकार करना बहुत ही महत्त्वका है, जैनधर्मके उत्थान और पड़ेगा कि जिन (कर्मशत्रून् जयतीति जिनः ), पतनके इतिहाससे इसका गहरा सम्बन्ध है, विजयी, या कर्मोंको जीतनेवाले उन्हीं लोगोंमें इसलिए इस पर खूब गंभीरतासे विचार किया हो सकते हैं जिनकी परिस्थितियाँ साहस, जाना चाहिए।
वीरता, उदारता आदि गुणों के विकास होनेके . . १ जैनधर्मके धारण करनेवाले या उसको अधिक अनुकूल होती हैं । उस समय क्षत्रिय प्रचारमें लानेवाले केवल क्षत्रिय ही नहीं थे। जैसे जयशील समाजमें ही यह योग्यता थी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद्र यहाँतक कि कि वह तीर्थकरोंको-अरहंतोंको जन्म दे सके। अनार्य भी जैनधर्मके उपासक थे। कथा- भारतके अन्यान्य महापुरुष भी राम, कृष्ण, ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि सब ही प्रकारके बुद्ध आदि भी-क्षात्रियोंके ही वंशमें हुए हैं। लोग जैनधर्मका पालन करते थे । एक २ क्षत्रिय जब अपना काम कर चुकेचाण्डालकी कथा बहुत ही प्रसिद्ध है जिसने अहिंसाधर्मका यथेष्ट प्रचार कर चुके, तब जैनधर्म धारण किया था । गरज यह कि वे इस कार्यको छोड़कर वैश्य बन गये, यह जैन एक प्रकारका धर्मविशेष है, समाज या कहना कोई युक्ति नहीं रखता । वे वैश्य ही जाति नहीं । उसे सारे जगतके मनुष्य धारण क्यों बन गये ? क्षत्रिय ही क्यों न बने रहे ?
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