Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 17
________________ भद्रबाहु -संहिता । Jain Education International 1 पता इस बातका चलता है कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ न होकर शक संवत् ३९५ अथवा विक्रम सं० ५३० से भी पीछेका बना हुआ है। यही वजह है कि इसमें उक्त समयसे पहले की घटनाओं ( प्रथमकल्कीका होना आदि) का उल्लेख भूतकालकी क्रियाओं द्वारा पाया जाता है। ऊपरका सारा वर्णन भूतकालकी क्रियाओंसे भरा हुआ है उसका प्रारंभ भी भूतकालकी क्रिया से हुआ है और अन्त भी भूतकालकी क्रियासे सिर्फ मध्यमें तीन जगह भविष्यत्कालकी क्रियाओंका प्रयोग है जो बिलकुल असम्बद्ध मालूम होता है । इस असम्बद्धताका विशेष अनुभव प्राप्त करनेके लिए मूल श्लोकोंको देखना चाहिए जो इस प्रकार हैं:त्यक्त्वा संवत्सरान्पंचाधिकषट्संमितान् । पंचमासयुतान्मुक्ति वर्द्धमाने गते सति ॥ ४७ ॥ शकराजोऽभवत् ख्यातः तेन शाकः प्रवर्त्स्यति । चतुर्वर्षशतैः सप्तत्यधिकैर्विक्रमो नृपः । उज्जयिन्यां प्रभुः स्वस्य वत्सरं वर्तयिष्यति ॥ ४८ ॥ उपसर्ग विदित्वा तं मुनीनामसुराधिपः । चतुर्मुखं हनिष्यन्ति जिनशासनरक्षकः ॥ ५४ ॥ इनमेंसे दूसरा श्लोक ( नं० ४८ ) वास्तवमें डेढ़ . श्लोक है। उसके पूर्वार्धका सम्बंध पहले श्लोक ( नं. ४७ ) से मिलता है; परन्तु शेष दोनों अर्ध भागों का कोई सम्बंध ठीक नहीं बैठता । 'त्यक्त्वा' शब्द के साथ 'चतुर्वर्षशतैः सप्तत्यधिकैः ' इन पदोंका कुछ भी मेल नहीं है इसी प्रकार 'अभवत्' के साथ 'प्रवर्त्स्यति' क्रियाका भी कोई मेल नहीं है। प्रवर्तते क्रियाका संबंध ठीक बैठ सकता है। तीसरे श्लोक ( नं० ५४ ) में 'हनिष्यन्ति' यह क्रिया बहुचनात्मक है और इसका कती 'असुराधिपः' एक वचनात्मक दिया है । इससे क्रियाका यह प्रयोग गलत है । यदि इस क्रियाको एक वच नकी क्रिया 'हनिष्यति' समझ लिया जाय तो भी काम नहीं चलता उससे छंदभंग होता है । इस लिए यह क्रिया किसी तरह भी ठीक नहीं बैठती । इसके स्थान में परोक्षभूतकी क्रियाको लिये हुए ' जघानेति ' पदका प्रयोग बहुत ठीक हो सकता है और उससे आगे पीछेका सारा सम्बन्ध मिल जाता है । परंतु यहाँ ऐसा नहीं है । अस्तु । इन्हीं सब बातों से यह कथन एक विलक्षण कथन होगया है । अन्यथा, ग्रंथमें, इसके आगे 'जलमंथन ' नाम के कल्कीका, जिसका अवतार अभीतक भी नहीं हुआ - पाँचवें कालके अन्तमें होना कहा जाता है - जो वर्णन दिया है उसमें इस प्रकारकी विलक्षणता नहीं है । उसका सारा वर्णन भविष्यत् कालकी क्रियाओंको लिये हुए है । तब यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि इसी वर्णनके साथ यह विलक्षणता क्यों है ? इसका कोई कारण जरूर होना चाहिए । मेरे खयाल में कारण यह है कि यह सारा प्रकरण ही नहीं बल्कि संभवतः सारा अध्याय किसी ऐसे पुराणादिक ग्रंथसे उठाकर यहाँ रक्खा गया है जो विक्रम संवत् ५३० से बहुत पीछेका बना हुआ था । ग्रंथकर्ताने ऊपर के वर्णनका भद्रबाहुके साथ सम्बंध मिलाने और उसे भद्रबाहुकी भविष्यवाणी प्रगट करनेके लिए उसमें भविव्यत्कालकी क्रियाओंका परिवर्तन किया है । परंतु मालूम होता है कि वह सब क्रियाओंको यथेष्ट रीतिसे बदल नहीं सका । इसीसे इस वर्णनमें इस प्रकारकी विलक्षणता और असम्बद्धताका प्रादुर्भाव हुआ है । मेरा यह उपर्युक्त खयाल और भी दृढ़ताको प्राप्त होता है । जब कि इस अध्यायके अन्तमें यह श्लोक देखनको मिलता है: । For Personal & Private Use Only ४३५ - www.jainelibrary.org

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