Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 19
________________ + भदबाहु-संहिता । भद्रबाह-संहिता। ४३७ निश्चय हुआ कि, ऊपरके प्रतिज्ञावाक्यमें जिन दुर्गदेवका यह 'रिष्टसमुच्चय ' शास्त्र विक्रम 'दुर्ग' नामके आचार्यका उल्लेख है वे निःस- संवत् १०८९ का बना हुआ है। जैसा कि न्देह ये ही 'दुर्गदेव' हैं और इनके इसी इसकी प्रशस्तिमें दिये हुए निम्न पद्यसे प्रगट है:'रिष्टसमुच्चय ' शास्त्रके आधार पर संहिताके संवत्थर इगसहसे बोलीणे नवयसीइ संजुत्ते इस प्रकरणकी प्रधानतासे रचना हुई है। सावणसुक्के यारसि दियहम्मि मूल रिक्खम्मि २५७ वास्तवमें इस शास्त्रकी १०० से भी अधिक दुर्गदेवका समय मालूम हो जानेसे, ग्रंथमुखसे गाथाओंका आशय और अनुवाद इस संहितामें ही, यह विषय बिलकुल साफ हो जाता है और पाया जाता है । अनुवादमें बहुधा मूलके इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि यह शब्दोंका अनुकरण है और इस लिए अनेक भद्रबाहुसंहिता ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवस्थानों पर, जहाँ छंद भी एक है, वह मूलका वलीका बनाया हुआ नहीं है, न उनके छायामात्र हो गया है। नमनेके तौर पर यहाँ किसी शिष्य-अशिष्यका बनाया हुआ है दोनों ग्रंथोंसे कुछ पद्य उद्धृत किये जाते हैं और न वि० सं०१०८९ से पहलेहीका जिससे इस विषयका पाठकोंको अच्छा अनुभव बना हुआ है। बल्कि उक्त संवत्से बादकाहो जायः विक्रमकी ११ वीं शताब्दीसे पीछेका बना हुआ है और किसी ऐसे व्यक्तिद्वारा १-करचरणेमु अ तोयं, दिन्नं परिसुसइ जस्स निभंतं । बनाया गया है जो विशेष बुद्धिमान न हो कर सो जीवइ दियह तयं, इह कहि पुव्वसूरीहिं॥३३॥ (रिष्टस०) साधारण मोटी अकलका आदमी था । यही पाणिपादोपरि क्षिप्तं तोयं शीघ्र विशष्यति । वजह है कि उसे ग्रंथमें उक्त प्रतिज्ञावाक्यको दिनत्रयं च तस्यायुः कथितं पूर्वसूरिभिः ॥ १८॥ . रखते हुए यह खयाल नहीं आया कि मैं इस (भद्र० संहिता) ग्रंथको भद्रबाहु श्रुतकेवलीके नामसे बना रहा २-बीआए ससिबिंबं, नियइ तिसिंगं च सिंगपरिहाणं। हूँ-उसमें १२ सौ वर्ष पीछे होनेवाले विद्वानका उवरम्मि धूमछायं, अह खंडं सो न जीवेइ ॥ ६५॥ नाम और उसके ग्रंथका प्रमाण न आना (रि०सं) चाहिए । मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने जिस द्वितीयायाः शशिबिंब, पश्येत्रिशृंगं च शृंगपरिहीनं। प्रकार अन्य अनेक प्रकरणोंको दूसरे ग्रंथोंसे उपरि सधूमच्छायं, खंडं वा तस्य गतमायुः॥ ४३॥ उठाकर रक्खा है उसी प्रकार यह रिष्टकथन (संहिता) या कालज्ञानका प्रकरण भी उसने किसी दूसरे ३-अहव मयंकविहीणं, मलिणं चंदं च पुरिससारित्थं। ग्रंथसे उठाकर रक्खा है और उसे इसके उक्त सो जीयइ मासमेगं, इय दिदं पुव्वसूरीहिं ॥ ६६ ॥ प्रतिज्ञावाक्यको बदलने या निकाल देनेका (रि० सं) स्मरण नहीं रहा । सच है 'झूठ छिपायेसे अथवा मृगांकहीनं, मलिनं चंद्रं च पुरुषसादृश्यं । नहीं छिपता। फारसीकी यह कहावत यहाँ प्राणी पश्यति नूनं, मासादूर्ध्व भवान्तरं याति ॥४४॥ ॥ बिलकुल सत्य मालूम होती है कि 'दरोग गोरा (संहि.) ४-इय मंतियसव्वंगो, मंती जोएउ तत्थ वर छायं। हाफ़जा न बाशद'-अर्थात् असत्यवक्तामें सुहदियहे पुव्वण्हे, जलहरपवणेण परिहीणे ७१ (रि०) धारणा और स्मरणशक्तिकी त्रुटि होती है। वह इति मंत्रितसागो, मंत्री पश्यनरस्य वरछायां। प्रायः पूर्वापरका यथेष्ट संबंध सोचे बिना मुंहसे शुभीदवसे पूर्वाण्डे, जलधरपवनेन परिहीनं ४९ (संहिता) जो आता है निकाल देता है । उसे अपना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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