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वस्तुस्वरूप का सच्चा भडान तथा स्वपर-मेव-विज्ञान उत्पन्न कर वीतरागता प्राप्त करने की प्रेरणा देना है ।"
चरणानुयोग के समान व्रज्यानुयोग में बुद्धियोवर कथन होता है, परन्तु चरणानुयोग में बाह्य किया की मुख्यता रहती है और द्रव्यानुयोग में आत्मा - परिणामों को मुख्यता से कथन होता है। जैनधर्म के अनुसार तो वह परिपाटी है कि पहले द्रव्यानुयोगानुसार सम्यग्दृष्टि हो, फिर चरणानुयोगानुसार व्रतादि धारणकर व्रती हो। पूजा-अर्चना का सम्बन्ध इन्हीं अनुयोगों से होता हुआ चरणानुयोग के शास्त्रों में पल्लवित हुआ है ।
प्रावि तथा वैदिक परम्परा द्वारा निर्दिष्ट सम्मार्ग पर भारतीय जन समाज आरम्भ से ही प्रवहमान है । द्राविड़ संस्कृति से चलकर व्रत - साधना भ्रमण कहलाई और वैदिक परम्परा को संजीवित करने वाली पद्धति वस्तुतः ब्राह्मण ।" अपने आराध्य के श्री चरणों में भक्ति-भावना व्यक्त करने के लिए ब्राह्मण शैली यज्ञ का आयोजन करती है ।" भ्रमण समाज में पूजा का विधान व्यवस्थित हुआ, जिसमें पुष्प का क्षेपण उल्लेखनीय है ।"
भारतीय संस्कृति में भ्रमण संस्कृति का प्रमुख स्थान है । जो संयमपूर्वक श्रम करे, उसे भ्रमण कहते हैं ।" इस परम्परा की प्राचीनता ऋग्वेद में धमन शब्द के व्यवहार से भी प्रमाणित है । भ्रमण-संस्कृति के दर्शन, सिद्धान्त, धर्म
१. जीवा जीवसुत्तत्वे पुण्यापुण्यं च बन्ध मोक्षौ च ।
द्रव्यानुयोग दीपः श्रुत विद्यालोक मालनुते ॥
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, स्वामी समन्तभद्र, श्लोक संख्या ४६, वही । २. भारतवाणी, तृतीय जिल्द, प्रबंध संपादक श्री विश्वम्भरनाथ पांडे । पृष्ठ ५६८ ।
३. बृहत हिन्दी कोश सम्पा० कालिकाप्रसाद आदि, ज्ञान मण्डल लिमिटेड, वाराणसी - १, तृतीय संस्करण संवत् २०२०, पृष्ठ १११२ ।
४. भारतवाणी, तृतीय जिल्द, प्रबन्ध सम्पादक श्री विश्वम्भरनाथ पांडे, लेखहिन्दी जैन पूजाकाव्य - डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया द्वारा उद्धृत इण्डो एशियन कल्चर, डा० सुनीति कुमार चाटुर्ज्या, इन्दिरा गान्धी अभिनन्दन समिति सन् १९७५, पृष्ठ ५६८ ।
५. दसवेआलियं, सम्पादक मुनि नथमल, आमुख, जैन विश्वभारती प्रकाशन, लाडनू', द्वितीय संस्करण १९७४, पृष्ठ १७ ।
६. तुदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणाअशुषिता अमृत्यवः ।
मनातुरा अजरा: श्थामविष्णवः सुपीवसो अतृषिता अतृष्णजः ॥ ऋग्वेद, मण्डल १०, सूत्र संख्या १४, ऋचासंख्या ११, सम्पादक श्रीरामशर्मा आचार्य, गायत्री तपोभूमि, मथुरा, प्रथम संस्करण १९६० ई० पू० १६९५