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xiv उत्तर कौलाचार में मद्यादि पंचभौतिक प्रक्रियाओं के साथ षोडशियों के प्रत्यक्ष-योनि पूजन एवं रमण की परम्परा तथा अनेक प्रकार के जप समाहित हैं। पर 'वामाचार' के साधन मार्ग, उसकी गोपनीयता तथा साधकों की सहज दुर्बलता ने इसे जनसमुदाय में तिरस्कार का पात्र बना दिया। इसके बावजूद भी तांत्रिकों की. झाड़-फूंक, भूत-प्रेत बाधा, शाप-वरदान आदि शक्तियों से सामान्य जन आज भी अभिभूत है और उनके प्रति वाह्य आदर भी प्रकट करता है। वस्तुतः इस तंत्र में "भोगो योगायते" की कहावत चरितार्थ होती है। पुरुषार्थ चतुष्टय में भी काम से मोक्ष की बात आती है। सत्यभक्त भी काम सुख को मोक्ष का प्रेरक मानते हैं। इस तंत्रवाद को ओशो की संभोग से समाधि की धारणा का पूर्व रूप मानना चाहिये?१० संभवतः उनकी मान्यता का स्रोत यह वामाचारी तंत्रवाद ही रहा हो। इसकी आध्यात्मिकता की उन्होंने चतुश्चरणीय, तार्किक एवं मनोवैज्ञानिक व्याख्या दी है:
काम-जागरूक काम-प्रेम-प्रार्थना-ईश्वरत्व प्राप्ति
मांस
इसके तामसिक तत्त्वों को उन्होंने अमान्य किया है। उन्होंने "काम" को ध्यान के साधन के रूप में प्रयोग करने की बात कही है। संभवतः “वामाचार" की साधना सिद्धि का रहस्य भी यही तथ्य रहा होगा जो सामान्य जन की समझ से परे रहा। इसीलिये ये दोनों ही साधनायें लोकप्रिय नहीं हो सकीं। यह तो अच्छा रहा कि पूर्वी कौलाचार में पंचतत्त्वों के अध्यात्मीकरण के कारण उनके अर्थ भी तदनुरूप ही अन्तर्यागी हो गये हैं और अभ्यंतर अनुष्ठान के प्रतीक बन गये हैं: मद्य
ब्रह्मरंध्र के सहस्रदलकमल से क्षरित सुधा
पुण्य-पाप पशुओं को मार कर मन को ब्रह्मलीन करना मत्स्य
श्वास-प्रश्वास रूपी मत्स्यों को प्राणायाम द्वारा साधित
करना मुद्रा - __ असत्-संग का त्याग मैथुन - शिव और शक्ति का संयोग, सुषुम्ना और प्राण का संयोग
तंत्रवाद का मूल उद्देश्य शिव और शक्ति का एकीभाव एवं व्यक्ति का परम कल्याण है। यदि तंत्रवाद इस अध्यात्मीकृत अंतर्याग एवं अंतःशक्ति के स्रोत के रूप में रहा होता, तो यह मानव की पशु शक्ति को दिव्य शक्ति में परिणित करने का महत्त्वपूर्ण मार्ग बना रहता। इस प्रकार अध्यात्मीकृत तंत्र-मंत्र, यंत्र, पूजन, जप और ध्यान का सम्मिलित रूप है और भक्तिवादी प्रवृत्ति का प्रेरक एवं साधक है। यह मंत्रवाद के उत्तरवर्ती सरल पथ की परम्परा है।
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