Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 17
________________ ४. ब्रह्मचर्य का ध्येय और उसके उपाय-१३१; ५ ब्रह्मचर्य के स्वरूप की विविधता और उसकी व्याप्ति-१३३; ६. ब्रह्मचर्य के अतिचार-१३६, ७. ब्रह्मचर्य की निरपवादता १३६ । १० : आवश्यक क्रिया १३८-१४७ 'आवश्यक क्रिया' की प्राचीन विधि कहीं सुरक्षित है-१३९; 'आवश्यक' किसे कहते है-१३९; आवश्यक का स्वरूप१४०; सामायिक-१४०; चतुर्विशतिस्तव-१४१; वंदन -~१४१; प्रतिक्रमण प्रमादवश-१४२; कायोत्सर्ग-१४४, प्रत्याख्यान-१४४; क्रम की स्वभाविकता तथा उपपत्ति-१४५; 'आवश्यक-क्रिया' की आध्यात्मिकता १४५; प्रतिक्रमण शब्द की रूढि-१४७ । ११ : जीव और पंचपरमेष्ठी का स्वरूप १४८-१५६ जीव के सम्बन्ध में कुछ विचारणा-१४८, जीव का सामान्य लक्षण-१४८; जीव के स्वरूप की अनिर्वचनीयता-१५०; जीव स्वयसिद्ध है या भौतिक मिश्रणो का परिणाम ?-१५०; पंच परमेष्ठी-१५१; पच परमेष्ठी के प्रकार-१५१, अरिहन्त और सिद्ध का आपस में अन्तर-१५२; आचार्य आदि का आपस में अन्तर-१५२; अरिहन्त की अलौकिकता-१५३; व्यवहार एव निश्चय-दृष्टि से पाचो का स्वरूप-१५४; नमस्कार के हेतु व उसके प्रकार-१५४; देव, गुरु और धर्म तत्त्व -१५६ । १२ : कर्मतत्त्व १५७-१७५ कर्मवाद की दीर्घदृष्टि-१५७; शास्त्रों के अनादित्व की मान्यता-१५७; कर्मतत्त्व की आवश्यकता क्यो-१५८; धर्म, अर्थ और काम को ही मानने वाले प्रवर्तक-धर्मवादी पक्ष-१५९; मोक्षपुरुषार्थी निर्वतक-धर्मवादी पक्ष१६०; कर्मतत्त्व सम्बन्धी विचार और उसका ज्ञाता-वर्ग--

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