Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi

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Page 16
________________ : १५ : ७: अहिंसा ९५ – ११४ -- आगम मे अहिंसा का निरूपण - ९५, वैदिक हिंसा का विरोध - ९७; जैनो और बौद्धो के बीच विरोध का कारण - ९७; अहिसा की कोटिकी हिसा -- ९८; जैन ऊहापोहकी क्रमिक भूकिए - १००, जैन और मीमासक आदि के बीच साम्य - १००; अहिंसा की भावना का विकास - १०१; नेमिनाथ की करुणा - १०१ ; पार्श्वनाथका हिसा - विरोध - १०२, भगवान महावीर के द्वारा की गई अहिंसा की प्रतिष्ठा -- १०२; अहिसा के अन्य प्रचारक - १०३; अहिसा और अमारि१०५, अशोक, सम्प्रति और खारवेल - १०५; कुमारपाल और अकबर - १०६; अहिसा के प्रचार का एक प्रमाण : पिंजरापोल - १०७, मानवजाति की सेवा करने की प्रवृत्ति - १०८; अमारिका निषेधात्मक और भावात्मक रूप अहिसा और दया १०९; सथारा और अहिंसा -- ११०; देह का नाश आत्महत्या कब ? टीकाकारो को उत्तर--११२; हिंसा नही अपितु आध्यात्मिक वीरता -- ११३, बौद्ध धर्म मे आत्मवध ; कतिपय सूक्त - ११४ । ८ : तप ११५ – १२४ तपश्चर्याप्रधान निर्ग्रन्थ-परम्परा – ११५; महावीर के पहले भी तपश्चर्या की प्रधानता - ११६; बुद्ध के द्वारा किये गए खण्डन का स्पष्टीकरण - ११८; भगवान महावीर के द्वारा लाई गई विशेषता -- १२०, तप का विकास -- १२२; परिषह — १२३, जैन तप मे क्रियायोग और ज्ञानयोग का सामजस्य – १२४; - ९ : जैन दृष्टि से ब्रह्मचर्यविचार १२५-- १३७ जैन दृष्टि का स्पष्टीकरण – १२५; कुछ मुद्दे - १२७; १. व्याख्या –– १२७; २. अधिकारी तथा विशिष्ट स्त्री-पुरुष१२८; ३. ब्रह्मचर्य के अलग निर्देश का इतिहास - १३० ;

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