Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07 Author(s): Atmaramji Maharaj Publisher: Jain Swarup Library View full book textPage 5
________________ माना जाता है किन्तु माथ ही यह कहे बिना भी नहीं रहा जाता कि धार्मिक शिक्षाओ की और जनता का ध्यान बहुत न्यून है इसीलिये दिन प्रति दिन सदाचार के स्थान पर पदा. चार अपना आसन जमा रहा है। जाता का ध्यान फिर पदाचार से हटकर सदाचार की और झुक जाय इसी आशा से प्रेरित होकर इस जैन धर्म शिक्षावटी नामक पुस्तक की रचना की गई है। इस भाग में सूक्ष्म और स्थूल दोनों विपयों का समावेश किया गया है जो विद्यार्थियों के लिये अत्यन्त उपयोगी समझा गया है। इस बात में कोई भी मदेह नहीं है कि यावत्वाल पयंत विद्यार्थियों को योग्यता पूर्वक शिक्षण न दिया जायगा, तावत्काल पर्यंत वे धार्मिक क्रियाओं मे अपरिचित ही रहते है। अतएव अध्यापको को उचित है कि वे विद्यार्थियों को जो सूक्ष्म विषय मी हो वे बही योग्यता पूर्वक सिखलायें जिससे वे धार्मिक तत्वा से पूर्णतया परिचित होजार । यदि विचार कर देखा जाय तो यह मली भाति विहित हो जाता है कि धार्मिक शिक्षा ही के बिना देगा या धर्म का अध पतन हो रहा है। यदि योग्यता पूर्वक धार्मिक शिक्षाओं का प्रचार किया जाय तब निस प्रकार वर्षा के होने पर पुष्प विकसित होने लग जाते है ठीक उसी प्रकार धार्मिकPage Navigation
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