Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 07 Author(s): Atmaramji Maharaj Publisher: Jain Swarup Library View full book textPage 4
________________ वक्तव्य। प्रिय सुज्ञ पुरुपा । जैन दर्शन में सग्रह नय के मत से जीव और अजीव द्रव्य ये दोनों अनादि अनन्त माने गए हैं। किन्तु साथ ही यह वर्णन कर दिया है कि भन्यात्माओं के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि सात्त है। सो जिन जीवों को मोक्ष के योग्य द्रव्य, क्षेन, काल __ और भाव मिल जाते हैं वे जीव अनुकूल सामग्री के द्वारा आत्म विकास करते हुए अनुक्रम से निर्वाण पद प्राप्त कर लेते हैं। वास्तव में निर्वाण पद की प्राप्ति के लिये सम्यग दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग चारित्र ही हैं किंतु इन तीनों का समावेश दो अकों में किया गया है जैसे कि "ज्ञान क्रियाभ्या मोक्ष " मान और क्रिया से ही मोक्ष पद प्राप्त हो सक्ता है। सो मुमुक्षु आत्माए सदैव उक्त दोनों पदार्थों के आराधन में लगी रहती हैं । परन्तु काल की घडी विचित्र गति है जो वह अपना प्रभाव दिसाये बिना नहीं रहता जैसे कि -इस काल में प्राय• लोगों की रुचि धार्मिक क्रियाओं की और दिन प्रति दिन न्यून होती जारही है। यद्यपि इसमें काल दोष भीPage Navigation
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