Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 14
________________ जैनवालवोधकपछी छांह लोरै गिरि कोर तप वे धरे । । घोर घन घोरै घटा चहुं ओर डोरै ज्यौं ज्यौं, चलत हिलोरै त्यौं त्यौं फोरै वल ये अरे । देह नेह तोरै परमाग्थसौं प्रीति जोरै, . ऐसे गुरु और हम हाथ अंजुली करें ॥ १० ॥ दर्शन पाठ. पुलकंत नयन-चकोर पक्षी, हंसत उर-इन्दीवरो । दुर्बुद्धि चकवी विलखि विछुरी, निविड मिथ्यातम हरयो । आनंद-अंधुधि उमगि उछरयो, अखिल आतप निरदले । जिन वदनपूरनचन्द्र निरखत, सकल मनवांछित फले ॥१॥ मुझ भाज आतम भयो पावन, आज विधन विनाशियो । संसार सागर नीर निवरयो, अखिल तत्व प्रकाशियो ।। अब भई कमला किंकरी मुझ, उभय भव निर्मल ठये । . दुख जरयो दुर्गति वास निवरयो, आज नव मंगल भये ।। १ चाहते वा देखते हैं । २ पर्वतके सिखरोंपर । ३ गरजते हैं। ४ डोले ढोलते हैं । ५ झंझा पवनके झोके । ६ प्रकाश करते हैं । ७ हर्षित हुवा । ८ नेत्ररूपी चकोर पक्षी । ९ हृदयरूपी नील कमल । १० कुमति रूपी बकवी । ११ घनघोर । १२ आनंदरूपी समुद्र । १३. समस्त । १४ नए होगये । १५ भगवानका मुखरूपी चंद्रमा। १६ लक्ष्मी । १७ दासी

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