Book Title: Jain Bal Bodhak 03
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तृतीय भाग। सुरपति सहस-यांख-अंजुलिसौं, रूपामृत पीवत नहिं धापै । तुम विन कौन सपर्थवीर जिन, अगसौं काढि-मोखमें यापै॥
श्रीसिद्धस्तुति मत्त गयंद। ध्यानडुतासनमें भरि इन्धन, झोंक दियो रिपुं रोक निवारी। शोक हरयो भविलोकनको वर, केवलज्ञान मयूखें उधारी ।। लोक अलोक विलोकि भये शिव, जन्मजरामृत पंक पखारी। सिद्धन थोक वसे शिवलोक, तिन्हें पग धोक त्रिकाल हमारी।। तीरयनाथ प्रनाम करें, तिनके गुनवर्ननमें बुधि हारी | . मोम गयो गलि {सममार, रह्यो तह व्योम तदाकतिधारी।। लोक-गहीर-नदीपति नीर, गये विर तीर भये अविकारी। सिद्धनयोक वसे शिवलोक, तिन्हें पगयोक त्रिकाल हमारी।।
___साधुस्तुति । कवित मनहर। शीतरितु-जोरै अंग सवही सको तहां, ___तनको न मोर नदि धोरै धीर जे खरे। जैठकी कोरै जहां अंडा चील छोरै पशु,
१ हजार नेत्ररूपी अंजुलियोंसे। २ तृप्त होता है । ३ ध्यानरूपी • अग्निमें । ४ कमरूपी शत्रुओंकी स्वाक्टको निवारण किया। ५ किरणे. ६ कीचड । ७ पाचांढोक प्रणाम । ८ सांवेमें। आकाशमैं । १० संसाररूपी गंभीर समुद्रके पानीको तिरकर । ११ जोरसे । १२ सकोरते हैं । १३ नहि मोडते। १४ नदी के किनारे पर । १५ जेठ महीनेकी लूवोंनी अकोरें । १६/पील पक्षी गौके मारे अंडा छोड देवी हैं।
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