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इत्यादि जो मराठी के साहित्यकार थे, उन्होंने भी खड़ी बोली (जिसको कि .. उस समय का गद्य ही कहना चाहिए) में अपने कई पद लिखे हैं। यहाँ तक कि छत्रपति शिवाजी की भी हिन्दी पद-रचना खडी बोली में मिन्नती है। .
परन्तु प्राचीन हिन्द्र साहित्यकारों को तो हम छोड़ते हैं; क्योंकि उनकी शायद ही कोई कविता खही वोली में मिलती है-अधिकांश मुसलमान साहित्यकारों का ही उस समय का “हिन्दवी" पद्य खड़ी बोली मे मिलता है । * गद्य उस समय का कम मिलता है, और यदि कुछ मिलता भी है, तो मिश्रित भाषा में । परन्तु हिन्दी गद्य का इतिहास जब हम देखते हैं तब पहले पहल हमको वहाँ भी एक मुसलमान ही सैलानी साहित्यकार मिलता है, जिसने हिन्दी । भाषा मे अरवी-फारसी के कठिन शब्दों का मिश्रण तो क्या, विदेशी भाषा के प्रचलित शन्दों तक का वहिष्कार करने की ठानी है । यह सैलानी हिन्दी गद्य। निर्माता सैयद इन्शाअल्लाखों है, जिसने प्रतिज्ञा करके अपना हिन्दी गद्य ऐसा लिखा है कि "जिसमें हिन्दवी छुट और किसी बोल की पुट न मिले " अर्थात् हिन्दी का छोड़कर और किसी (अरबी-फारसी इत्यादि विदेशी) शब्द का
आभास भी न मिले। वह कहता है, जब मैं ऐसा करके दिखलाऊँ "तब ? जाके मेरा जी फूल की कुली के रूप खिले !"
निस्सन्देह इस सैलानी साहित्यकार के समसामयिक मुंशी सदासुखलाल, पंडित लल्लूलाल और पंडित सदल मिश्र-और-और भी कई हिन्दी गद्यनिर्माता जिनका कि नाम अभी तक इतिहास ग्रन्थों में नहीं आ सका हैसैयद इंशाअल्लाखों के समय में और शायद उसके पहले भी-हिन्दी गद्य लिख गये होंगे; पर हिन्दी गद्य लिखना मात्र उनका उद्देश्य नहीं था-वे अपना साधारण लेखन का काम करते थे। जैसे मुन्शी सदासुखलाल ने उस समय सब से अधिक परिमार्जित गद्य लिखा है,पर गद्य लिखना उनका उद्देश्य । नहीं था--किसी खास तरह की टकसाली भाषा लिखना उनका अभीष्ट नहीं था-उनका उद्देश्य था श्रीमद्भागवत का सरस अनुवाद करना अथवा अन्य प्रकार के लेख लिखना । इसी प्रकार लल्लूलाल जी और सदल मिश्र का प्रथम ।। उद्देश्य था अपने अध्यक्ष गिलक्राइट साहब का याज्ञा-पालन । इन दोनों हिन्दू