Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust
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सम्यक्त्वं भवति। कस्यचिज्जीवस्य औपशमिकसम्यक्त्वात्प्रपततोऽनन्तानुबन्ध्युदयात् कलुषितस्यापि मिथ्यात्वमप्राप्तस्य वमनवद्विरसतत्त्वरसास्वादनेन सास्वादनसम्यक्त्वं भवति । तथा चाह
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'मिच्छाइखए खइओ, सो सत्तगि खीणि ठाइ बद्धाऊ । चउतिभवभाविमुक्खो, तब्भवसिद्धी उ (द्धिउ ) इअरो उ ॥ १ ॥ '
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(सम्यक्त्वस्वरूपकुलकम् १८ )
'अप्पुव्वकयतिपुंजो, मिच्छमुइण्णं खवित्तु अणुइनं । उवसामिय अनिअट्टी करणाउ परं खओवसमो ॥ २ ॥ '
(सम्यक्त्वस्वरूपकुलकम् १६ )
'वेअगसम्मत्ती पुण, कए दुपुंजक्खयंमि तइयस्स । खयकालचरमसमए सुद्धाणुअवेअणे होई ॥३॥' 'अकयतिपुंजो ऊसरदवईलियदड्डरुक्खनाएहिं ।
अंतरकरणुवसमिओ, उवसमिओ वा ससेणिगओ ॥ ४ ॥ '
( सम्यक्त्वस्वरूपकुलकम् १७ )
'उवसमअद्धाए ठिओ, मिच्छमपत्तो तमेव गंतुमणो ।
संमं सासायंतो, सासायणिमो इमो होइ ॥ ५ ॥ ' ( षडशीतिभाष्यम् ३) 'अंतमुहुत्तोवसमो, छावलि सासाणु वेअगो समओ ।
साहिअतित्तीसायर, खइओ दुगुणो खओवसमो ॥६॥'
(सम्यक्त्वस्वरूपकुलकम् २१)
'उक्कोसं सासायण, उवसमिआ हुंति पंचवाराउ | वेअगखयगा इक्कसि, असंखवारा खओवसमो ॥७ ॥'
(सम्यक्त्वस्वरूपकुलकम् २२) तथा पञ्चविधं चारित्रम् । यथा - सामायिकं १, छेदोपस्थापनीयं २, परिहारविशुद्धिकं ३, सूक्ष्मसम्परायं ४, यथाख्यातं ५ चेति । यदुक्तम् -
३
'सामाइ यत्थ पढमं, छेओवट्ठावणं भवे बीयं ।
परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह सम्परायं च ॥ १ ॥
१. ड - पुस्तके 'सम्मत्तं ' । २. ड - पुस्तके - 'वेअगो' । ३. अ-पुस्तके - 'सामाइ इत्थ' ॥
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पञ्चविधं चारित्रम्
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