Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust

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Page 210
________________ 'गमणे आवस्सियं१ कुजा, ठाणे कुजा निसीहियं२। आपुच्छणा३ सयंकरणे, परकरणे पडिपुच्छणं४॥१॥ छंदणा५ दव्वजाएणं, इच्छाकारो६ य सारणे। मिच्छाकारो७ सनिंदाए, तहक्कारो८ पडिस्सुए॥२॥ अब्भुट्ठाणं९ गुरुपूआ, अच्छणे उवसंपया १०। एसा दसहा साहुस्स, सामायारी पवेईया॥३॥'(उत्तराध्ययनसूत्रम् ९७८-९८०) दश चित्तसमाधिस्थानानि स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तशयनासनवर्जनादीनि। यदागमः – ‘नो इत्थी-पसुपंडग-संसत्ताई सयणासणाइं सेवित्ता भवइ१, नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ२, नो पणीयरसभोई भवइ३, नो पाणभोयणस्स अमाइं आहारित्ता भवइ४, नो पुव्वरयपुव्वकीलियाई सेवित्ता भवइ५, नो इत्थीट्ठाणाई सेवित्ता भवइ६, नो इत्थीणं इंदियाइं मणोरमाइं आलोइय आलोइय निज्झाइत्ता भवइ७, नो सद्दरूवगंधाणुवाई भवइ८, नो सिलोगाणुवाई भवइ९, नो सायासुक्खपडिबद्धे भवइ१०॥' इति। कषायषोडशकं च अनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्भेदभिन्नक्रोधादिचतुष्करूपम्। यदाह - 'कोहो माणो माया, लोहो चउरोवि हुँति चउभेया। अण अप्पच्चक्खाणा, पच्चक्खाणा य संजलणा॥१॥' (पुष्पमाला २८४) 'अण'त्ति अनन्तानुबन्धिनः। तथाऽत्रोपमानादयः सज्वलनानेवादौ कृत्वा दर्शिताः। यदाह - 'जलरेणुपुढविपव्वय-राईसरिसो चउव्विहो कोहो। तिणिसलयाकट्ठट्ठिय-सेलत्थंभोवमो माणो॥१॥ मायावलेहिगोमुत्तिमिंढसिंगघणवंसमूलसमा। लोहो हलिइखंजण-कद्दमकिमिरागसारिच्छो॥२॥ पक्खचउमासवच्छर-जावजीवाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारय-गइसाहणहेअवो भणिया॥३॥' (पुष्पमाला २८६-२८८) १. ड-क-पुस्तके - ‘अमाई मायं' इत्यपि॥ दशविधसामाचारी, दश चित्तसमाधिस्थानानि, कषायषोडशकम् ...१९५...

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