Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust
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चतुर्विधानि चत्वारि विनयश्रुततपआचाररूपाणि समाधिस्थानानि । यदागमः
'चउव्विहा खलु विणयसमाही भवइ। तं जहा-अणुसासिजंतो सुस्सूसइ१ सम्मं संपडिवजइर वेयमाराहइ३ न भवइ अत्तसंपग्गहिए ४। चउत्थं पयं भवइ, भवइ य इत्थ सिलोगो -
पेहेइ हियाणुसासणं, सुसूस्सइ तं च पुणो अहिट्ठए। न य माणमएण मजइ, विणयसमाहिआययट्ठिए॥१॥
चउव्विहा खलु सुअसमाही भवइ। तं जहा-सुयं मे भविस्सइत्ति अज्झाइयव्वं भवइ १। एगग्गचित्तो भविस्सामित्ति अज्झाइयव्वं भवइ २। अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव्वं भवइ ३। ठिओ परं ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव्वं भवइ ४॥ चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ। तं जहा-नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा१, नो परलोगट्टयाए तवमहिटिजार, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्टयाए तवमहिट्ठिजा३, नन्नत्थ निजरट्टयाए तवमहिट्ठिजा४॥३॥ चउव्विहा खलु आयारसमाही भवइ। तं जहानो इहलोगट्टयाए आयारमहिट्ठिजा १, नो परलोगट्टयाए आयारमहिट्ठिजार, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्टयाए आयारमहिट्ठिजा ३, नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिट्ठिज्जा ४॥' (दशवैकालिकसूत्रम् ९/४)
इत्येवं षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्जयतु। इति गाथार्थः॥१२॥ अथ द्वादशषट्विंशिकासूत्रगाथामाह - दसविहवेआवच्चं, विणयं धम्मं च पडु पयासंतो। वजियअकप्प छक्को, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥१३॥
व्याख्या - दशविधवैयावृत्त्यं, दशविधविनयं, दशविधं धर्मं च पटु प्रकाशयन् वर्जिताकल्पषट्कश्चेति षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्जयत्विति सक्षेपार्थः।
विस्तरार्थस्त्वयम्- दशविधं वैयावृत्त्यं आचार्यादिविषयम्। यदाह
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१. मोक्षार्थिकः। २. अध्यापयितव्यं अध्येतव्यं वा। ३. स्वर्लोकादि। ४. अधितिष्ठेत्। ५. अर्हत्प्रणीतैः।
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चतुर्विधानि चत्वारि समाधिस्थानानि
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