Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust

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Page 239
________________ 'खुहा१ पिवासार सी३ उण्हं४ दंसा५ऽचेला६ रइथिओट। चरिया९ निसीहिया १० सिजा११, अक्कोस१२ वह१३ जायणा१४॥१॥ अलाभ१५ रोग१६ तणप्फासा१७, मल१८ सक्कार१९ परीसहा। पन्ना२० अन्नाण२१ सम्मत्तं२२, इअ बावीस परीसहा॥२॥' (नवतत्त्वप्रकरणम् २७,२८) तथा - ‘पन्नाऽन्नाणपरीसह, नाणावरणमि हुंति दो चेव। इक्को अ अंतराए, अलाभपरीसहो चेव॥१॥ अरई अचेल इत्थी, निसीहिया जायणा य अक्कोसा। सक्कारपुरक्कारे, चरित्तमोहंमि सत्तेव॥२॥ दसणमोहे दंसण-परीसहो नियमसो हवइ इक्को। सेसा परीसहा खलु, इक्कारस वेयणिजंमि॥३॥ बावीसं बायरसं-पराइ चउदस य सुहुमरागंमि। छउमत्थवीयरागे, चउदस इक्कारस जिणंमि॥४॥ . वीसं उक्कोसपए, वटुंति जहण्णओ य इक्कं च। सीओसिणचरियनिसीहिया य जुगवं न वटुंति॥५॥' (गाथासहस्री ४१२-४१६) अभ्यन्तरग्रन्थचतुर्दशकं रागद्वेषादिकम्। यदाह - 'रागो दोसो अ मिच्छत्तं, कसाया हासछक्कगं। एगो वेउत्तिमे गंथा, अंतरंगा चउद्दस॥१॥' इति गाथार्थः॥२७॥ अथ सप्तविंशतितमी षट्त्रिंशिकामाह - पणवेइयाविसुद्धं, छद्दोसविमुक्कं पंचवीसविहं। पडिलेहणं कुणंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥२८॥ व्याख्या - पञ्चविधवेदिकाविशुद्धं षड्दोषविप्रमुक्तं पञ्चविंशतिविधां प्रतिलेखनां कुर्वन्, इति षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्जयत्विति सक्षेपार्थः। ...२२४... द्वाविंशतिपरीषहाः, अभ्यन्तरग्रन्थचतुर्दशकम्

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