Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust
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कलिलमलरुहिरवसमं-सपित्तमुत्तंतअट्ठिभरियंपि। कुहियकलेवरमेयं, हद्धी मुद्धो मुणइ सुद्धं ॥७॥ मिच्छत्तपमायाविर-इजोगपमुहा हु आसवदुवारा। कम्मेहिँ जलेहि व पू-रयंति आयं तलायं व॥८॥ सम्मापमायविरई-गुत्तीपमुहेहिँ दढकवाडेहिं। संवरियासवदारं, आयतलायं लहुं कुणसु॥९॥ खलियनवकलिलसलिला-गमोऽवि पुव्वकयपावपंकाओ। छुट्टसि न जीव ! तवबा-रसप्पतावं विणा कहवि॥१०॥ कत्थवि किया न सुदया, कत्थवि सुदया न निम्मला समया। समयादयाकियाहिं, पवत्तिओ जयइ जिणधम्मो॥११॥ जत्थ भमिओऽसि पुव्विं, अणंतसो जीव ! जोणिलक्खेसु। तं लोगसरूवं चिय, चिंतंतो कुणसु सुहझाणं॥१२॥ को जाणइ लब्भइ वा, न वत्ति बोही पुणोऽवि रे जीव !। ता इह लहिउं बोहिं, सुहोवमं कुणसु रंक ! धुवं॥१३॥' इत्येवं षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्जयतु। इति गाथार्थः॥१७॥ अथ सप्तदशी षट्त्रिंशिकामाह - चउदगुणठाणनिउणो, चउदसपडिरूवपमुहगुणकलिओ। अट्ठसुहुमोवएसी, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥१८॥
व्याख्या - गदितार्था। नवरं चतुर्दश गुणस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि। यदाह -
'मिच्छे सासण मीसे, अविरय देसे पमत्त अपमत्ते। नियट्टि अनियटि सुहुम, उवसम खीण सजोगि अजोगि गुणा॥१॥'
(कर्मस्तवः २) 'जीवाइपयत्थेसुं, जिणोवइडेसु जा असद्दहणा।
सद्दहणा वि य मिच्छा, विवरीयपरूवणाएं य॥२॥ १. समतादयाक्रियाभिः। २. आधाराद्युपमितम्। ३. “विवरीयपरूपणा जा य” इत्यपि। चतुर्दश गुणस्थानानि
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