Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust
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दोसं जो उ उईरेइ, अप्पणो य परस्स य। तन्निमित्ताणुबंधेणं, लिप्पई पावकम्मुणा॥११॥ कलहं जो उईरेइ, अप्पणो य परस्स य। तन्निमित्ताणुबंधेणं, लिप्पई पावकम्मुणा॥१२॥ अब्भक्खाणं उईरेइ, अप्पणो य परस्स य। तन्निमित्ताणुबंधेणं, लिप्पई पावकम्मुणा॥१३॥ पेसुन्नं जो उईरेइ, अप्पणो य परस्स य। तन्निमित्ताणुबंधेणं, लिप्पई पावकम्मुणा॥१४॥ रइअरई उईरेइ, अप्पणो य परस्स य। तन्निमित्ताणुबंधेणं, लिप्पई पावकम्मुणा॥१५॥ परपरिवायमुईरेइ, अप्पणो य परस्स य। तन्निमित्ताणुबंधेणं, लिप्पई पावकम्मुणा॥१६॥ मायामोसं उईरेइ, अप्पणो य परस्स य। तन्निमित्ताणुबंधेणं, लिप्पई पावकम्मुणा॥१७॥ मिच्छासलं उईरेइ, अप्पणो य परस्स य। तन्निमित्ताणुबंधेणं, लिप्पई पावकम्मुणा॥१८॥' इति गाथार्थः॥२२॥ अथ द्वाविंशतितमी षट्त्रिंशिकामाह - सीलंगसहस्साणं धारतो तह य बंभभेयाणं। अट्ठारसगमुयारं, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥२३॥ व्याख्या - सुगमैव। नवरं अष्टादशसहस्रशीलाङ्गानामियं निष्पत्तिः। यथा'करणे जोए सन्ना, इंदिय भोमाइ समणधम्मे य।
सीलांगसहस्साणं, अट्ठारसगस्स निप्फत्ती॥१॥' (विचारसारः ३५६)
ब्रह्माष्टादशधा दिव्यौदारिकादिभेदभिन्नम्। यदाह - १. ड-पुस्तके-“जे नो करंति मणसा, निज्जियआहारसन्नासोइंदि। पुढवीकायारंभं, खंतिजुआ ते मुणी वदे॥१॥ इत्यादिकरणगाथा ग्रन्थान्तरादवसेयाः। ब्रह्माष्टा -" इत्यपि पाठः॥ अष्टादशसहस्रशीलाङ्गानि, अष्टादशधा ब्रह्म ।
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