Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust
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'कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो॥४॥'
(दशवैकालिकसूत्रम् ३७२) इत्येवं दशविधसामाचारीदशचित्तसमाधिस्थानकेषु लीनमनाः, षोडशकषायत्यागी चेति षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्जयतु। इति गाथार्थः॥११॥
अथैकादशषट्त्रिंशिकासूत्रगाथामाह - पडिसेवसोहिंदोसे, दस दस विणयाइचउसमाहीओ। चउभेयाइ मुणंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥१२॥
व्याख्या - प्रतिसेवादोषान् दश, शोधिदोषांश्च दश, विनयादिचतुःसमाधींश्च प्रत्येकं चतुर्भेदभिन्नान् जानन्निति षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्जयत्विति पिण्डार्थः।
स्फुटार्थस्त्वयम्-प्रतिसेवादशकं दर्पादिकम्। यदाह - 'दप्प १ प्पमाय २ ऽणाभोगे ३, आउरे ४ आवईसु ५ य। संकिए ६ सहसागारे ७, भए ८ पओसे ९ य वीमंसा १०॥१॥'
(स्थानाङ्गसूत्रम् १४६) 'दप्पो उ वग्गणाई, कन्दप्पाई तहा पमाउत्ति। विस्सरणमणाभोगो, आउरे रुअखुहाईहिं॥२॥ दव्वाइअलंभे पुण, चउप्पयारा उ आवई होइ। सुद्धमिवि संकाए, जं संके तं समासजे॥३॥ पुट्विं अपासिऊणं, पाए छुढेमि जं पुणो पासे। न चएइ नियत्तेउं, पायं सहसाकरणमेयं ॥४॥ रायसीहाइभयओ, पहकहणाई य रुक्खचडणाई। कोहाईओ पओसो, वीमंसा सेहमाइणं॥५॥' दश शोधिदोषाः आकम्पयित्वेत्यादिकाः। यदाह - 'आकंपईत्ता १ अणुमाणइत्ता २ जं दिटुं ३ बायरं ४ च सुहुमं ५ वा।
छन्नं ६ सद्दाउलयं ७, बहुजण ८ अव्वत्त ९ तस्सेवी १०॥१॥ १. वल्गनादि। २. रुजाक्षुधादिभिः।
प्रतिसेवादशकम्
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