Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust

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Page 216
________________ जो मुणइ सव्वभावे, सव्वपमाणेहिँ वित्थररुई सो। समियाइसु आउत्तो, जो खलु किरियारुई सो उ॥५॥ सो संखेवरुई जो, चिलाइपुत्तु व्व बुज्झई तत्तं। सद्दहइ जिणाभिहियं, जो धम्मं सो हु धम्मरुई॥६॥' द्वादशाङ्गी तु आचारादिदृष्टिवादान्ता। यदागमः 'नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं दुवालसंगं गणिपिडगं भगवंतं, तं जहा-आयारो १, सूयगडो २, ठाणं ३, समवाओ ४, विवाहपन्नत्ती ५, नायाधम्मकहाओ ६, उवासगदसाओ ७, अंतगडदसाओ ८, अणुत्तरोववाईयदसाओ ९, पण्हावागरणं १०, विवागसुअं ११, दिट्टिवाओ १२॥' (पाक्षिकसूत्रम्) इति। द्वादशोपाङ्गी तु औपपातिकादिलक्षणा। यदाहुः - 'उववाइयं १ रायपसे-णीयं २ तह जीवाभिगम ३ पन्नवणा ४। जंबूपन्नत्ती ५ चंद ६-सूरपन्नत्ति ७ नामाओ॥१॥ निरयावलिया ८ कप्पा-वयंस ९ पुप्फीय १० पुप्फचूलीय ११। वण्हीदसा उ १२ एवं, बारसुवंगाण नामाइं॥२॥' । द्विविधा शिक्षा, ग्रहणा १ ऽऽसेवना २ लक्षणा। यदाह - 'सिक्खा नाम परिणा, सा पुण दुविहा सुए समक्खाया। पढमा गहणपरिण्णा १, बीया आसेवणपरिण्णा २॥१॥' इत्येवं षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्जयतु। इति गाथार्थः॥१४॥ अथ चतुर्दशी षट्त्रिंशिकामाह - एगार सड्ढपडिमा, बारसर्वय तेरकिरियठाणे य। सम्म उवएसंतो, छत्तीसगुणो गुरू जयउ॥१५॥ व्याख्या – कण्ठ्या। नवरं एकादश श्राद्धप्रतिमा दर्शनप्रतिमादिकाः। यदाह - 'दंसण१ वयर सामाइय३, पोसह४ पडिमा५ अबंभ६ सच्चित्ते७। आरंभ८ पेस९ उद्दि-४१० वज्जए समणभूए११ य॥१॥'(पञ्चाशकम् ४४७) द्वादशाङ्गी, द्वादशोपाङ्गी, द्विविधा शिक्षा ...२०१...

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