Book Title: Gurugunshat Trinshtshatrinshika Kulak
Author(s): Hemchandrasuri
Publisher: Sanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust

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Page 189
________________ रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पड़ भवमज्ञ वसंतो, जलेण वा पुक्खरिणि-पलासे ॥६॥ घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयराओ॥७॥ गंधस्स जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे से जह गंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ परिनिक्खमंतो॥८॥ गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेणं। न लिप्पइ भवमझे वसंतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासे॥९॥ जिब्भाइ रसणं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयराओ॥१०॥ रसस्स जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे बिडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे॥११॥ रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेणं। न लिप्पइ भवमझे वसंतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासे॥१२॥ कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयराओ॥१३॥ फासस्स जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे सीअजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे वऽरण्णे॥१४॥ फासे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेणं। न लिप्पइ भवमझे वसंतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासे॥१५॥' (उत्तराध्ययनसूत्रम् ११७२, ११७४, ११८४, ११५९, ११६१, ११७१, ११८५, ११८७, ११९७, ११९८, १२००, १२१०, १२११, १२१३, १२२३) इति॥ अथ प्रमादपञ्चकं मद्य १ विषय २ कषाय ३ निद्रा ४ विकथा ५ लक्षणम्। यदभिधीयते - 'मज्जं १ विसय ३ कासाया, ३ निद्दा ४ विगहा ५ य पंचमी भणिया। एए पंच पमाया, जीवं पाडंति संसारे॥१॥' (सम्बोधसप्ततिः ७३) १. '-गाही' इत्यपि। ...१७४... प्रमादपश्वकम्

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