Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 29
________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कह सकते हैं। आगे जो चार अवस्थाएँ कही गयी हैं वे चारित्रमोह की दृष्टि से हैं। कषाय-उपशमक, कषाय-उपशान्त, कषाय-क्षपक और क्षीणकषाय या क्षीणमोह, इन चारों अवस्थाओं का सम्बन्ध अनन्तानुबन्धी को छोड़कर कषायचतुष्क की अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन चौकड़ी से और नोकषायों का पहले उपशम फिर क्षय करने से है। इन अवस्थाओं में उपशमक और उपशान्त क्षपक और क्षीण - इनका स्पष्ट और अलग-अलग उल्लेख होने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह अवधारणा उपशम और क्षायिक को अलग-अलग न मानकर उपशम के पश्चात् क्षायिक श्रेणी से विकास की चर्चा करती है। इस समग्र चर्चा का निष्कर्ष यह है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा इन दस अवस्थाओं का ही एक विकसित रूप है। इन दस अवस्थाओं को हम गुणस्थान सिद्धान्त के बीज की संज्ञा दे सकते हैं। इन अवस्थाओं को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में गुणश्रेणी के नाम से जाना जाता है। यहाँ गुण शब्द का प्रयोग सामान्यतया कर्मवर्गणा के पुद्गलों के लिये हुआ है। मेरी दृष्टि में इसी गुणश्रेणी से ही गुणसिद्धान्त का विकास हुआ है। आध्यात्मिक विकास या गुणश्रेणियों की इन दस अवस्थाओं की चर्चा का प्राचीनतम उपलब्ध आधार आचारांगनियुक्ति को मानने पर यह शंका उपस्थित होती है कि नियुक्तियाँ तो द्वितीय भद्रबाहु ( वराहमिहिर के भाई ) की रचनाएँ हैं। उनका काल विद्वान् लोग ईसा की पाँचवीं शताब्दी मानते हैं। जबकि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र को ईसा की प्रथम शताब्दी से तृतीय शताब्दी के बीच की रचना माना जाता है। अत: यह मानना होगा कि इन दस अवस्थाओं का सर्वप्रथम चित्रण तत्त्वार्थसूत्र में ही हुआ है, किन्तु यह मान्यता भी निर्दोष नहीं हो सकती क्योंकि परम्परागत दृष्टि से तो नियुक्तियों को प्रथम भद्रबाहु की कृति मानने पर दो समस्याएँ उपस्थित होती हैं - प्रथम तो यह कि स्वयं दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में ही नियुक्तिकार छेदसूत्रों के कर्ता भद्रबाहु प्रथम ही नियुक्तियों के रचनाकार हैं तो वे स्वयं अपने को कैसे प्रणाम कर सकते हैं ? दूसरी बाधा यह है कि आवश्यकनियुक्ति में वी० नि० सं० १८४ तक होने वाले सात निह्नवों का उल्लेख आया है साथ ही इसमें आर्यरक्षित ( वीर निर्वाण सं० ५८४ ) का उल्लेख भी है जबकि आचार्य भद्रबाहु का स्वर्गवास तो वी० नि० सं० १७० अर्थात् ई० पू० तृतीय शती में ही हो जाता है। वे अपने से लगभग ४०० वर्ष बाद अर्थात् वीर निर्वाण ५८४ में होने वाले निह्नवों और आर्यरक्षित का उल्लेख कैसे कर सकते हैं ? इसलिये विद्वानों ने यह माना कि नियुक्तियाँ भद्रबाह द्वितीय की रचनाएँ हैं किन्तु नियुक्तियों को वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु की कृतियाँ मानने में भी कई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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