Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन
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करता। इसकी तुलना जैनधर्म में साधक की मार्गानुसारी अवस्था से की जा सकती है। हीनयान सम्प्रदाय के अनुसार सम्यक्दृष्टिसम्पन्न निर्वाण-मार्ग पर आरूढ़ साधक को अपने लक्ष्य अर्हत् अवस्था को प्राप्त करने तक इन चार भूमियों ( अवस्थाओं ) को पार करना होता है -- १. स्रोतापन्न भूमि, २. सकृदागामी भूमि, ३. अनागामी भूमि और ४. अर्हत् भूमि। प्रत्येक भूमि में दो अवस्थाएँ होती हैं - १. साधक की अवस्था या मार्गावस्था तथा २. सिद्धावस्था या फलावस्था।
१. स्रोतापन्न भूमि - स्रोतापन का शाब्दिक अर्थ होता है धारा में पड़ने वाला, अर्थात् साधक साधना अथवा कल्याणमार्ग के प्रवाह में गिरकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। बौद्ध-विचारधारा के अनुसार जब साधक निम्न तीन संयोजनों ( बन्धनों ) का क्षय कर देता है, तब वह इस अवस्था को प्राप्त करता है -
१. सत्काय दृष्टि - देहात्म-बुद्धि अर्थात् शरीर को आत्मा मानना, उसके प्रति ममत्व या मेरापन रखना ( स्वकायेदृष्टिः : चन्द्रकीर्ति )
२. विचिकित्सा - सन्देहात्मकता तथा
३. शीलव्रत परामर्श - अर्थात् व्रत, उपवास आदि में आसक्ति। दूसरे शब्दों में मात्र कर्मकाण्ड के प्रति रुचि।
इस प्रकार जब साधक दार्शनिक मिथ्या दृष्टिकोण ( सत्कायदृष्टि ) एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्यादृष्टिकोण ( शीलव्रत परामर्श ) का त्याग कर सर्व प्रकार के संशयों ( विचिकित्सा ) की अवस्था को पार कर जाता है, तब वह इस स्रोतापन्न भूमि पर आरूढ़ हो जाता है। दार्शनिक एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्या दृष्टिकोणों एवं सन्देहशीलता के समाप्त हो जाने के कारण इस भूमि के पतन की सम्भावना नहीं रहती है और साधक निर्वाण की दिशा में अभिमुख हो आध्यात्मिक दिशा में प्रगति करता है। स्रोतापन साधक निम्न चार अंगों से सम्पन्न होता है -
१. बुद्धानुस्मृति : बुद्ध में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। २. धर्मानुस्मृति : धर्म में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। ३. संघानुस्मृति : संघ में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। ४. शील एवं समाधि से युक्त होता है।
स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त साधक विचार ( दृष्टिकोण ) एवं आचार दोनों से शुद्ध होता है। जो साधक इस स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण-लाभ कर ही लेता है।
जैन-विचारधारा के अनुसार क्षायिक-सम्यक्त्व से युक्त चतुर्थ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से सातवें अप्रमत्त-संयतगुणस्थान तक की जो अवस्थाएँ हैं, उनकी Jain Education International
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