Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 115
________________ १०४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ९. अचला - संकल्पशून्यता एवं विषयरहित अनिमित्त विहारी समाधि की उपलब्धि से यह भूमि अचल कहलाती है। विषयों के अभाव से चित्त संकल्पशून्य होता है और संकल्पशून्य होने से अविचल होता है, क्योंकि विचार एवं विषय ही चित्त की चंचलता के कारण होते हैं, जबकि इस अवस्था में उनका पूर्णतया अभाव होता है। चित्त के संकल्पशून्य होने से इस अवस्था में तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। यह भूमि तथा अग्रिम साधुमती और धर्ममेघा भूमि जैनविचारधारा के सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती १०. साधुमती -- इस भूमि में बोधिसत्व का हृदय प्राणियों के प्रति शुभ भावनाओं से परिपूर्ण होता है। इस भूमि का लक्षण है सत्वपाक अर्थात् प्राणियों के बोधिबीज को परिपुष्ट करना। इस भूमि में समाधि की विशुद्धता एवं प्रतिसंविन्मति ( विश्लेषणात्मक अनुभव करने वाली बुद्धि ) की प्रधानता होती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व में दूसरे प्राणियों के मनोगत भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। ११. धर्ममेघा - जैसे मेघ आकाश को व्याप्त करता है, वैसे ही इस भूमि में समाधि धर्माकाश को व्याप्त कर लेती है। इस भूमि में बोधिसत्त्व दिव्य शरीर को प्राप्त कर रत्नजड़ित दैवीय कमल पर स्थित दिखाई देते हैं। यह भूमि जैनधर्म के तीर्थङ्कर के समवशरण-रचना के समान प्रतीत होती है। आजीवक सम्प्रदाय एवं आध्यात्मिक विकास की अवधारणा __ बुद्ध और महावीर के समकालीन विचारक मंखली गोशालक के आजीवक सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की कोई अवधारणा अवश्य थी, जिसका उल्लेख मज्झिमनिकाय की बुद्धघोष कृत सुमंगलविलासिनी टीका में मिलता है। बुद्धघोष ने आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की आठ क्रमिक अवस्थाओं का उल्लेख किया है। ये आठ अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं --- १. मन्द - बुद्धघोष के अनुसार जन्म से लेकर सात दिन तक यह 'मन्द-अवस्था' होती है किन्तु मेरी दृष्टि में 'मन्द-अवस्था' का अर्थ भिन्न ही होना चाहिये। यद्यपि वर्तमान में आजीवक सम्प्रदाय के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं, इसलिये इस सम्बन्ध में वास्तविक अर्थ बता पाना तो कठिन है, किन्तु यह भूमि जैनदर्शन के मिथ्यात्व गुणस्थान के समान ही होनी चाहिये, जिसमें प्राणी का आध्यात्मिक विकास कुण्ठित रहता है। २. खिड्डा - बुद्धघोष ने इसे बालक की रुदन और हास्य मिश्रित क्रीड़ा की अवस्था माना है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह अवस्था जैन-परम्परा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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