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गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन १०५
अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समान होना चाहिये, जिसमें साधक आत्मरमण या आध्यात्मिक क्रीड़ा की अवस्था में रहता है।
३. पदवीमांसा - बुद्धघोष के अनुसार जिस प्रकार बालक माता-पिता के हाथ का सहारा लेकर चलने का प्रयास करता है उसी प्रकार इस अवस्था में साधक गुरु का आश्रय लेकर साधना के क्षेत्र में अपना कदम रखता है। इसे हम जैन दर्शन के पाँचवें विरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समकक्ष मान सकते हैं। पदवीमांसा का अर्थ है कदम रखना, अत: यह आध्यात्मिक क्षेत्र में कदम रखना
है।
४. ऋजुगत - बुद्धघोष ने यह माना है कि जब बालक पैरों पर बिना सहारे के चलने लगता है तब ऋजुगत अवस्था होती है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह गृहस्थ साधना में ही एक आगे बढ़ा हुआ चरण है, जिसमें साधक स्वतन्त्र रूप से आध्यात्मिक साधना में आगे बढ़ता है। जैन परम्परा में जो श्रावक प्रतिमाओं की भूमि है, सम्भवत: यह वैसी ही कोई अवस्था है।
५. शैक्ष – बुद्धघोष के अनुसार यह अवस्था शिल्पकला के अध्ययन की अवस्था है, जबकि मेरी दृष्टि में इसे बौद्ध परम्परा के श्रामणेर या जैन परम्परा के सामायिक चारित्र जैसी भूमि के समकक्ष मानना चाहिये। जैन गुणस्थान सिद्धान्त से इस अवस्था की तुलना छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से भी की जा सकती है।
६. श्रमण - बुद्धघोष ने इसे संन्यास ग्रहण की अवस्था माना है। जैन परम्परा में इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के समकक्ष माना जा सकता है।
७. जिन - बुद्धघोष ने इसे ज्ञान प्राप्त करने की भूमि माना है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह भूमि जैन परम्परा के सयोगीकेवली गुणस्थान या बौद्ध परम्परा की अर्हत् अवस्था के समकक्ष होनी चाहिये।
८. प्राज्ञ – बुद्धघोष ने इसे वह अवस्था माना है, जिसमें भिक्षु (जिन) कुछ भी नहीं बोलता। वस्तुत: यह अवस्था जैन परम्परा के अयोगीकेवली गुणस्थान के समान ही होनी चाहिये, जब साधक शारीरिक और मानसिक गतिविधियों का पूर्णतया निरोध कर लेता है।
वस्तुत: बुद्धघोष ने प्रथम से लेकर पाँचवीं भूमिका तक के जो अर्थ किये हैं वे युक्तिसंगत नहीं हैं। इस बात का उल्लेख पं० सुखलालजी और प्रो० हॉर्नले ने भी किया था। क्योंकि बुद्धघोष की व्याख्या का सम्बन्ध आध्यात्मिक विकास के साथ ही बैठता था। यद्यपि मैंने इनका जो अर्थ किया है वह भी विद्वानों की दृष्टि में क्लिष्ट कल्पना तो होगी किन्तु फिर भी वह आजीवक सम्प्रदाय की मूल भावना
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