________________
गुणस्थान और मार्गणा
१२३
और चतुरेन्द्रिय जीव में जन्म लेते समय सास्वादन सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान की सम्भावना स्वीकार की गयी है किन्तु इस गुणस्थान के अत्यधिक अल्पकालिक होने से सामान्यतया यही माना गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर चतुरेन्द्रिय तक के जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
३. कायमार्गणा - काय छ: प्रकार की मानी गयी है - पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस। इनमें सकाय जीवों में चौदह गणस्थानों की सम्भावना है। शेष पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
४. योगमार्गणा - जैन दर्शन में मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहा जाता है। सामान्यतया योग तीन माने गए हैं - १. मनयोग, २. वचनयोग और ३. काययोग। पुन: मनयोग के चार, वचनयोग के चार और काययोग के सात इस प्रकार योग के निम्नलिखित पन्द्रह भेद माने गए हैं -
१. सत्य मनोयोग, २. असत्य मनोयोग, ३. सत्यमृषा मनोयोग, ४. असत्यामृषा मनोयोग, ५. सत्य वचनयोग, ६. असत्य वचनयोग, ७. सत्यमृषा वचनयोग, ८. असत्यामृषा वचनयोग, ९. औदारिकशरीर काययोग १०.
औदारिकमिश्रशरीर काययोग, ११. वैक्रियशरीर काययोग, १२. वैक्रियमिश्रशरीर काययोग, १३. आहारकशरीर काययोग, १४. आहारकमिश्रशरीर काययोग १५. तैजसकार्मणशरीर काययोग।
इन पन्द्रह योगों में से सत्यमनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्य-अमृषा मनोयोग और असत्य-अमृषा वचनयोग -- ये चार योग संज्ञी प्राणी में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक सम्भव हैं। शेष चार - असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, सत्यासत्य अर्थात् मिश्र मनोयोग और मिश्र वचनयोग - संज्ञी प्राणी में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण-मोह गुणस्थान तक सम्भव है। असंज्ञी विकलेन्द्रिय जीवों में मात्र असत्य-अमृषा रूप अन्तिम मनोयोग एवं वचनयोग ही होता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अप्रमत्त संयत से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक लेकर जो असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, मिश्र मनोयोग और मिश्र वचनयोग कहे गए हैं उन्हें ज्ञानावरण के कारण असावधानीवश ही समझना चाहिए। क्योंकि जब तक ज्ञानावरण है तब तक असत्यता की सम्भावना भी है। यद्यपि यह सम्भावना केवल असावधानी के कारण ही होती है।
जहाँ तक काययोगों का प्रश्न है देव और नारक वैक्रिय शरीर वाले होते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org