Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 135
________________ १२४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण हैं। मनुष्य और तिर्यञ्च, वैक्रिय एवं औदारिक शरीर वाले होते हैं। प्रमत्तसंयत में आहारक शरीर सम्भव होता है। जबकि सभी प्रकार के अपर्याप्त जीव मिश्र शरीर वाले होते हैं। प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक के देव और नारकों में वैक्रिय, वैक्रियमिश्र और तैजस-कार्मण – ये तीन काययोग पाये जाते हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक के मनुष्यों में तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर देशविरत गणस्थान तक के तिर्यञ्चों में औदारिक एवं वैक्रिय काययोग सम्भव होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि केवल वैक्रिय लब्धि के धारक गर्भज मनुष्यों और तिर्यञ्चों में ही वैक्रिय काययोग की सम्भावना होती है। मनुष्यों में भी अप्रमत्तसंयत गणस्थान और उसके आगे के सभी गुणस्थानों में वैक्रिय काययोग सम्भव नहीं होता है क्योंकि आत्मविशुद्धि के कारण ये वैक्रियलब्धि का उपयोग नहीं करते हैं। इसी प्रकार प्रमत्तसंयत चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनियों में आहारक काययोग की सम्भावना होती है। इसके साथ यह भी ज्ञातव्य है कि अपर्याप्त अवस्था में मिश्र गुणस्थान सम्भव नहीं होता है। अतः उस अवस्था में ही वैक्रिय मिश्र काययोग सम्भव होता है। कार्मण-तैजस काययोग भवान्तर करते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान और अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान में तथा केवली समुद्घात करते समय सयोगीकेवली में सम्भव होता है। मिश्र गुणस्थान में कोई जीव मृत्यु को प्राप्त ही नहीं करता है। अत: उसमें तैजस कार्मण काययोग सम्भव नहीं है। ५. वेदमार्गणा - जैनदर्शन में 'वेद' शब्द का तात्पर्य है - स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक सम्बन्धी कामवासनाएँ। वेद तीन होते हैं - पुरुषवेद, स्त्रीवेद एवं नपुंसकवेद। नारकों में नपुंसकवेद, देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद – ये दो वेद होते हैं। तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों में स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक ये तीनों ही वेद पाए जाते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर सम्पराय नामक नौवें गुणस्थान तक तीनों वेदों अर्थात् तीनों प्रकार की कामवासनाओं की सम्भावना है। शेष गुणस्थानों में वेद अर्थात् कामवासना का अभाव है। यहाँ विशेषरूप से यह ज्ञातव्य है कि जैनदर्शन में स्त्री, पुरुष और नपुंसक सम्बन्धी आंगिक संरचना लिङ्ग कही जाती है, जबकि तत्सम्बन्धी कामवासना वेद। श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा के अनुसार दसवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक कामवासना समाप्त होने पर तीनों ही लिङ्गों के धारक आरोहण कर सकते हैं। जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार सातवें गुणस्थान से आगे मात्र पुरुष ही आरोहण कर सकते हैं। ६. कषायमार्गणा - जैनदर्शन में कषायों के कुल पचीस भेद माने गये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150