Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 119
________________ १०८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण पापकर्मा होता है। यह अवस्था जैन विचारणा के मिथ्यात्व गुणस्थान एवं बौद्ध विचारणा की अन्धपृथक्जन भूमि के समान है। गीता के अनुसार इस तमोगुण भूमि में मृत्यु होने पर प्राणी मूढ़ योनियों में जन्म लेता है ( प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते : १४. १५ ) अधोगति को प्राप्त होता है। २. दूसरा वर्ग वह है, जहाँ श्रद्धा अथवा जीवनदृष्टि तो तामस हो, लेकिन आचरण सात्विक हो। इस वर्ग के अन्दर गीता में वर्णित वे भक्त आते हैं, जो आर्त भाव एवं किसी कामना को लेकर ( अर्थार्थी ) भक्ति ( धर्माचरण ) करते हैं। गीताकार ने इनको सुकृति ( सदाचारी) एवं उदार कहा है। लेकिन साथ ही साथ यह भी स्वीकार किया है कि ऐसे व्यक्ति परमात्मा, मोक्ष या परमगति को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। गीता का स्पष्ट निर्देश है कि कामनाओं के कारण जिनका ज्ञान अपहत हो गया है वे सम्यग्दृष्टि पुरुष के समान आचरण करते हुए भी अस्थायी फल को प्राप्त होते हैं, जबकि यथार्थ दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति उसी आचरण के फलस्वरूप परमात्मरूप की प्राप्ति करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि गीता के अनुसार भी ऐसे व्यक्तियों की दृष्टि या श्रद्धा यथार्थ नहीं हो सकती है, क्योंकि वह बन्धन का कारण ही होती है, मुक्ति का नहीं। अत: पारमार्थिक दृष्टि से उन्हें मिथ्या दृष्टि ही मानना होगा। चाहे सदाचरण के कारण उन्हें स्वर्गादि सुख ही क्यों न मिलता हो, फिर भी वे निर्वाण-मार्ग से तो विमुख ही हैं। यह वर्ग जैन विचारणा के अनुसार सम्यक्त्व गुणस्थान के निकटवर्ती मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीवों का है। बौद्ध दृष्टि से यह अवस्था कल्याण पृथक्जन भूमि या धर्मानुसारी भूमि से तुलनीय है। ३. तीसरा वर्ग वह है जहाँ श्रद्धा अथवा बुद्धि राजस हो। श्रद्धा अथवा बुद्धि के राजस होने का तात्पर्य उसकी चंचलता या अस्थिरता से है। श्रद्धा या बुद्धि की अस्थिर या संशयपूर्ण अवस्था में आचरण सम्भव नहीं होता। अस्थिर बुद्धि किसी भी स्थायित्वपूर्ण आचरण का निर्णय नहीं ले पाती, अतः यह भूमिका जीवन-दृष्टि और आचरण दोनों ही अपेक्षा से राजस होती है। गीता में अर्जुन का व्यक्तित्व इसी धर्म से मढ़ चेतना की भूमिका को लेकर प्रस्तुत होता है। गीता के अनुसार यह संशयात्मक एवं अस्थिरता की भूमिका नैतिक एवं आध्यात्मिक अविकास की अवस्था है। गीता के अनुसार अज्ञानी एवं अश्रद्धालु ( मिथ्यादृष्टि ) जिस प्रकार विनाश को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार संशयात्मा भी विनाश को प्राप्त होती है। यही नहीं, संशयात्मा की अवस्था तो उनसे अधिक बुरी बनती है, क्योंकि वह भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के सुखों से वंचित रहता है, जब कि मिथ्यादृष्टि प्राणी कम से कम भौतिक सुखों का तो उपभोग कर ही लेता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150