Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 126
________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन ११५ विकास की अवस्था को और सात आध्यात्मिक पतन की अवस्था को सूचित करती हैं। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो जैन परम्परा के गुणस्थान - सिद्धान्त में भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विकास का सच्चा स्वरूप अप्रमत्त चेतना के रूप में सातवें स्थान से ही प्रारम्भ होता है। इस प्रकार जैन परम्परा में भी चौदह गुणस्थानों में सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की और सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक अविकास की हैं। योगवाशिष्ठ की उपर्युक्त मान्यता की जैन परम्परा से कितनी निकटता है इसका निर्देश पं० सुखलाल जी ने भी किया है । " योगवाशिष्ठ में जो चौदह भूमिकाएँ हैं, उनमें सात का सम्बन्ध अज्ञान से और सात का सम्बन्ध ज्ञान से है। अज्ञान की अधोलिखित सात भूमिकाएँ हैं— १. बीज जाग्रत् : यह चेतना की प्रसुप्त अवस्था है। यह वनस्पतिजगत् की अवस्था है। २. जाग्रत् : इसमें अहं और ममत्व का अत्यल्प विकास होता है। यह पशु-जगत् की अवस्था है। ३. महाजाग्रत् : इस अवस्था में अहं और ममत्व पूर्ण विकसित हो जाते हैं। यह आत्मचेतना की अवस्था है। यह अवस्था मनुष्य - जगत् से सम्बन्धित है। ४. जाग्रत् स्वप्न : यह मनोकल्पना की अवस्था है। इसे आधुनिक मनोविज्ञान में दिवास्वप्न की अवस्था कह सकते हैं। यह व्यक्ति की भ्रमयुक्त अवस्था है। ५. स्वप्न : यह स्वप्न चेतना की अवस्था है। यह निद्रित अवस्था की अनुभूतियों को निद्रा के पश्चात् जानना है । ६. स्वप्न जाग्रत : यह स्वप्निल चेतना है। स्वप्न देखती हुई जो चेतना है वह स्वप्न जाग्रत है। यह स्वप्न दशा का बोध है। ७. सुषुप्ति : यह स्वप्नरहित निद्रा की अवस्था है। जहाँ आत्मचेतनता की सत्ता होते हुए भी जड़ता की स्थिति है । है। ज्ञान की सात भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं। १. शुभेच्छा : यह कल्याण - कामना है। २. विचारणा : यह सदाचार में प्रवृत्ति का निर्णय है। ३. तनुमानसा : यह इच्छाओं और वासनाओं के क्षीण होने की अवस्था ४. सत्त्वापत्ति: शुद्धात्म स्वरूप में अवस्थिति है । ५. असंसक्ति : यह आसक्ति के विनाश की अवस्था है। यह राग भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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