Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 129
________________ ११८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण है। इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति शुभ कार्यों के सम्पादन में रुचि रखता है और अशुभ कार्य करने वालों के प्रति अद्वेषवृत्ति रखता है। इस अवस्था में आत्मबोध तृण की अग्नि के समान स्थायी नहीं होता है। २. तारादृष्टि और नियम : तारादृष्टि योग के द्वितीय अंग नियम के समान है। इसमें शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय आदि नियमों का पालन होता है। जिस प्रकार मित्रादृष्टि में शुभ कार्यों के प्रति अद्वेष गुण होता है, उसी प्रकार तारादृष्टि में जिज्ञासा गुण होता है, व्यक्ति में तत्त्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा बलवती होती है। ३. बलादृष्टि और आसन : इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति की तृष्णा शान्त हो जाती है और स्वभाव या मनोवृत्ति में स्थिरता होती है। इस अवस्था की तुलना आसन नामक तृतीय योगांग से की जा सकती है। क्योंकि इसमें शारीरिक, वाचिक और मानसिक स्थिरता पर जोर दिया जाता है। इस अवस्था का प्रमुख गुण शुश्रूषा अर्थात् श्रवणेच्छा माना गया है। इस अवस्था में प्रारम्भ किये गए शुभ कार्य निर्विघ्न पूरे होते हैं। इस अवस्था में प्राप्त होने वाला तत्त्वबोध काष्ठ की अग्नि के समान कुछ स्थायी होता है। ४. दीप्रादृष्टि और प्राणायाम : दीप्रादृष्टि योग के चतुर्थ अंग प्राणायाम के समान हैं। जिस प्रकार प्राणायाम में रेचक, पूरक एवं कुम्भक ये तीन अवस्थाएँ होती हैं, उसी प्रकार बाह्य भावनियन्त्रण रूप रेचक, आन्तरिक भावनियन्त्रण रूप पूरक एवं मनोभावों की स्थिरतारूप कुम्भक की अवस्था होती है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक प्राणायाम है। इस दृष्टि में स्थिर व्यक्ति सदाचरण या चरित्र को अत्यधिक महत्त्व देता है। वह आचरण का मूल्य शरीर की अपेक्षा भी अधिक मानता है। इस अवस्था में होने वाला आत्मबोध दीपक की ज्योति के समान होता है। यहाँ नैतिक विकास होते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है, अतः इस अवस्था से पतन की सम्भावना बनी रहती है। ५. स्थिरादृष्टि और प्रत्याहार : पूर्वोक्त चार दृष्टियों में अभिनिवेश या आसक्ति विद्यमान रहती है। अत: व्यक्ति को सत्य का यथार्थ बोध नहीं होता। उपर्युक्त अवस्थाओं तक सत्य का मान्यता के रूप में ग्रहण होता है, सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। लेकिन इस अवस्था में आसक्ति या राग के अनुपस्थित होने से सत्य का यथार्थ रूप में बोध हो जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से यह अवस्था प्रत्याहार के समान है। जिस प्रकार प्रत्याहार में विषय-विकार का परित्याग होकर आत्मा विषयोन्मुख न होते हुए स्व-स्वरूप की ओर उन्मुख होता है, उसी प्रकार इस अवस्था में भी विषय-विकारों का त्याग होकर आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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