Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 123
________________ ११२ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण जिसकी प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और जिसमें प्रवेश करते हैं।२५ आगे वीतराग मुनि द्वारा उसकी प्राप्ति के अन्तिम उपाय की ओर संकेत करते हुए वे कहते हैं कि “जो शरीर के सब द्वारों का संयम करके ( काया एवं वाणी के व्यापारों को रोककर ), मन को हृदय में रोककर ( मन के व्यापारों का निरोध कर ), प्राण-शक्ति को मूर्धा ( शीर्ष ) में स्थिरकर, योग को एकाग्रकर 'ओम्' इस अक्षर का उच्चारण करता हुआ मेरे अर्थात् विशुद्ध आत्मतत्त्व के स्वरूप का स्मरण करता हुआ अपने शरीर का त्याग कर संसार से प्रयाण करता है, वह उस परमगति को प्राप्त कर लेता है। इसके पूर्व भी इसी तथ्य का विवेचन उपलब्ध होता है। जो व्यक्ति इस संसार से प्रस्थान के समय मन को भक्ति और योगबल से स्थिर करके ( अर्थात् मन के व्यापारों को रोक करके ) अपनी प्राणशक्ति को भौंहों के मध्य सम्यक् प्रकार से स्थापित कर देहत्याग करता है, वह उस परम-दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है। कालिदास ने भी योग के द्वारा अन्त में शरीर त्यागने का निर्देश किया है। यह समग्र प्रक्रिया जैन-विचार के चतुर्दश अयोगीकेवली गणस्थान के अति निकट है। इस प्रकार यद्यपि गीता में आध्यात्मिक विकास-क्रम का व्यवस्थित एवं विशद विवेचन उपलब्ध नहीं है, तथापि जैन-विचारणा के गुणस्थान प्रकरण में वर्णित आध्यात्मिक विकास-क्रम की महत्त्वपूर्ण अवस्थाओं का चित्रण उसमें उपलब्ध है, जिन्हें यथाक्रम सँजोकर नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का क्रम प्रस्तुत किया जा सकता है। जैन आचार-दर्शन के चौदह गुणस्थानों का गीता के दृष्टिकोण से विचार करने के लिये सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना होगा कि गीता में वर्णित तीनों गुणों का स्वरूप क्या है और वे जैन-विचारणा के किन-किन शब्दों से मेल खाते हैं। गीता के अनुसार तमोगुण के लक्षण हैं - अज्ञान, जाड्यता, निष्क्रियता, प्रमाद, आलस्य, निद्रा और मोह। रागात्मकता, तृष्णा, लोभ, क्रियाशीलता, अशान्ति और ईर्ष्या रजोगुण के लक्षण हैं। सत्त्वगुण ज्ञान के प्रकाश, निर्माल्यता और निर्विकार अवस्था और सुखों का उत्पादक है। इन तीनों गुणों की प्रकृतियों के बारे में विचार करने पर ज्ञात होता है कि जैन विचार में बन्धन के पाँच कारणों - १. अज्ञान ( मिथ्यात्व ), २. प्रमाद, ३. अविरति, ४. कषाय और ५. योग से इनकी तुलना की जा सकती है। तमोगुण को मिथ्यात्व और प्रमाद, रजोगुण को अविरति, कषाय और योग तथा सत्त्वगुण को विशुद्ध ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, चारित्रोपयोग के तुल्य माना जा सकता है। इन तुल्य आधारों के द्वारा तुलना करने पर गुणस्थान की धारणा का गीता के अनुसार निम्नलिखित स्वरूप होगा १. मिथ्यात्व गुणस्थान में तमोगुण प्रधान होता है और रजोगुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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