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गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन
अच्छाई के लिये भी इसके विरोधी के साथ संघर्ष की शर्त संघर्ष समाप्त हो जाता है और अच्छाई पूर्ण बन जाती है, नहीं रहती, वह सब नैतिक बाधाओं से ऊपर उठ जाती है। सत्त्व की प्रकृति का विकास करने के द्वारा हम उससे ऊपर उठ जाते हैं। जिस प्रकार हम काँटे के द्वारा काँटे को निकालते हैं ( फिर उस निकालने वाले काँटे का भी त्याग कर देते हैं) उसी प्रकार सांसारिक वस्तुओं का त्याग करने के द्वारा त्याग को भी त्याग देना चाहिये । सत्त्वगुण के द्वारा रजस् और तमस् पर विजय पाते हैं और उसके बाद स्वयं सत्त्व से भी ऊपर उठ जाते हैं । २३
विकास की अग्रिम तथा अन्तिम कक्षा वह है, जहाँ साधक इस त्रिगुणात्मक जगत् में रहते हुए भी इसके ऊपर उठ जाता है। गीता के अनुसार यह गुणातीत अवस्था ही साधना की चरम परिणति है, गीता के उपदेश का सार है । २४ गीता में विकास की अन्तिम कक्षा का वर्णन इस प्रकार मिलता है। जब देखने वाला ( ज्ञानगुणसम्पन्न आत्मा ) इन गुणों ( कर्म - प्रकृतियों ) के अतिरिक्त किसी को कर्ता नहीं देखता और इनसे परे आत्मस्वरूप को जान लेता है तो वह मेरे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् परमात्मा हो जाता है। ऐसा शरीरधारी आत्मा शरीर के कारणभूत एवं उस शरीर से उत्पन्न होने वाले त्रिगुणात्मक भावों से ऊपर उठकर गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जन्म, जरा, मृत्यु के दुःखों से मुक्त होकर अमृत - तत्त्व को प्राप्त हो जाता है। वह इन गुणों से विचलित नहीं होता, वह प्रकृति ( कर्मों) के परिवर्तनों को देखता है, लेकिन उनमें उलझता नहीं, वह सुख - दुःख एवं लौह - कांचन को समान समझता है, सदैव आत्मस्वरूप में स्थिर रहता है। प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग में तथा निन्दा स्तुति में वह सम रहता है। उसका मन सदैव स्थिर रहता है । मानापमान तथा शत्रु-मित्र उसके लिये समान हैं। ऐसा सर्व आरम्भों ( पापकर्मों ) का त्यागी महापुरुष गुणातीत कहा जाता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह अवस्था जैन विचारणा के तेरहवें सयोगीकेवली मुणस्थान एवं बौद्ध विचारणा की अर्हत्भूमि के समान है। यह पूर्ण वीतरागदशा है, जिसके स्वरूप के सम्बन्ध में भी सभी समालोच्य आचार-दर्शनों में काफी निकटता है ।
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त्रिगुणात्मक देह से मुक्त होकर विशुद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेना साधना की अन्तिम कक्षा है । इसे जैन- विचार में अयोगीकेवली गुणस्थान कहा गया है। गीता में उसके समतुल्य ही इस दशा का चित्रण उपलब्ध है। गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं मैं तुझे उस परमपद अर्थात् प्राप्त करने योग्य स्थान को बताता हूँ, जिसे विद्वज्जन 'अक्षर' कहते हैं। वीतराग मुनि
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लगी हुई है, ज्यों ही त्यों ही वह अच्छाई
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