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गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन
होता है। आध्यात्मिक विकास की यह भूमि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से तुलनीय है, क्योंकि जिस प्रकार इस भूमि में साधक क्लेशावरण और श्रेयावरण का दाह करता है, उसी प्रकार आठवें गुणस्थान में भी साधक ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का रसघात एवं संक्रमण करता है, इसमें साधक वीर्य पारमिता का अभ्यास करता है ।
६. सुदुर्जया इस भूमि में सत्त्व - परिपाक अर्थात् प्राणियों के धार्मिक भावों को परिपुष्ट करते हुए एवं स्वचित्त की रक्षा करते हुए दुःख पर विजय प्राप्त की जाती है। यह कार्य अति दुष्कर होने से इस भूमि को 'दुर्जया' कहते हैं। इस भूमि में प्रतीत्यसमुत्पाद के साक्षात्कार के कारण भवापत्ति ( ऊर्ध्व लोकों में उत्पत्ति ) विषयक संक्लेशों से अनुरक्षण हो जाता है । बोधिसत्व इस भूमि में ध्यान पारमिता का अभ्यास करता है। इस भूमि की तुलना आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक की अवस्था से की जा सकती है। जैन और बौद्ध दोनों विचारणाओं के अनुसार साधना के विकास की यह अवस्था अत्यन्त ही दुष्कर होती है ।
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७. अभिमुखी प्रज्ञापारमिता के आश्रय से बोधिसत्व ( साधक ) संसार और निर्वाण दोनों के प्रति अभिमुख होता है । यथार्थ प्रज्ञा के उदय से उसके लिये संसार और निर्वाण में कोई अन्तर नहीं होता। अब संसार उसके लिये बन्धक नहीं रहता। निर्वाण के अभिमुख होने से यह भूमि अभिमुखी कही जाती है ।
। इस भूमि में प्रज्ञापारमिता की साधना पूर्ण होती है। चौथी, पाँचवीं और छठी भूमियों में अधिप्रज्ञा शिक्षा होती है अर्थात् प्रज्ञा का अभ्यास होता है, जो इस भूमि में पूर्णता को प्राप्त होता है । तुलना की दृष्टि से यह भूमि सूक्ष्म सम्पराय नामक बारहवें गुणस्थान की पूर्वावस्था के समान है।
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८. दूरंगमा इस भूमि में बोधिसत्व साधक एकान्तिक मार्ग अर्थात् शाश्वतवाद, उच्छेदवाद आदि से बहुत दूर हो जाता है। ऐसे विचार उसके मन में उठते नहीं है। जैन परिभाषा में यह आत्मा की पक्षातिक्रान्त अवस्था है, संकल्प शून्यता है, साधना की पूर्णता है, जिसमें साधक को आत्म-साक्षात्कार होता है। बौद्ध-विचार के अनुसार भी इस अवस्था में बोधिसत्व की साधना पूर्ण हो जाती है। वह निर्वाण प्राप्ति के सर्वथा योग्य हो जाता है। इस भूमि में बोधिसत्व का कार्य प्राणियों को निर्वाण मार्ग में लगाना होता है। इस अवस्था में वह सभी पारमिताओं का पालन करता है एवं विशेष रूप से उपाय कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है। यह भूमि जैन- विचारणा के बारहवें गुणस्थान के अन्तिम चरण की साधना को अभिव्यक्त करती है, क्योंकि जैन विचारणा के अनुसार भी इस अवस्था में आकर साधक निर्वाण प्राप्ति के सर्वथा योग्य होता है।
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