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गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान सिद्धान्त में अत्यन्त निकट सम्बन्ध है। वस्तुत: गणस्थान सिद्धान्त व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास-क्रम को सूचित करता है और उसके आध्यात्मिक विकास-क्रम को अवरुद्ध करने वाला तत्त्व कर्म है, अतः कर्मों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय पर ही आध्यात्मिक विकास आधारित है। इससे यह फलित होता है कि एक ओर आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों पर आत्मा के अनन्त चतुष्टय को आवरित करने वाली शक्तियाँ, जिन्हें परम्परागत भाषा में हम कर्म-प्रकृति कहते हैं, किस रूप में और कितनी शेष रहती हैं, यह बताना गुणस्थान सिद्धान्त का मुख्य प्रतिपाद्य है, तो दूसरी ओर कर्म-सिद्धान्त हमें यह बताता है कि विभिन्न कर्म-प्रकृतियों के उपशमित अथवा क्षीण होने पर आध्यात्मिक विकास के किस सोपान पर आत्मा की अवस्थिति होती है।
__ अत: हम कह सकते हैं कि बिना जैन कर्म-सिद्धान्त को समझे गुणस्थान सिद्धान्त को एवं बिना गुणस्थान सिद्धान्त को समझे कर्म-सिद्धान्त को नहीं जाना जा सकता, क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह परस्पर सापेक्ष हैं।
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