Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 52
________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास ४५ आत्मा स्वस्वरूप में स्थित होने के लिये प्रयास नहीं कर पाता अथवा नैतिक आचरण नहीं कर पाता, उसे चारित्रमोह कहते हैं। दर्शन-मोह विवेक बुद्धि का कुण्ठन है और चारित्र-मोह सत्प्रवृत्ति का कुण्ठन है। जिस प्रकार व्यवहार-जगत् में वस्तु का यथार्थ बोध हो जाने पर ही उसकी प्राप्ति का प्रयास सफल होता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक-जगत् में भी सत्य का यथार्थ बोध होने पर उसकी प्राप्ति का प्रयास सफल होता है। आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में आत्मा के दो प्रमुख कार्य हैं -- पहला स्व-स्वरूप और पर-स्वरूप या आत्म और अनात्म का यथार्थ विवेक करना और दूसरा स्वस्वरूप में स्थिति। दर्शन-मोह को समाप्त करने से यथार्थ बोध प्रकट होता है और चारित्रमोह पर विजय पाने से यथार्थ प्रयास का उदय होकर स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है। दर्शनमोह और चारित्रमोह में दर्शनमोह ही प्रबल है। यदि आत्मा इस दर्शनमोह अर्थात् यथार्थ बोध के अवरोधक तत्त्व को भेदकर एक बार स्व-स्वरूप का दर्शन कर लेता है अर्थात् आत्मा को अपने गन्तव्य लक्ष्य का बोध हो जाता है, तो फिर वह स्वशक्ति से इस चारित्रमोह को भी परास्त कर स्वरूप लाभ या आदर्श की उपलब्धि कर ही लेता है। जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा को स्वस्वरूप के लाभ या आध्यात्मिक आदर्श की उपलब्धि के लिये दर्शनमोह और चारित्रमोह से संघर्ष करना होता है। अशुभ वृत्तियों से संघर्ष विकास के लिये आवश्यक है। इसी संघर्ष से आत्मा की विजय-यात्रा प्रारम्भ होती है। जैन विचारणा के अनुसार आत्मा स्वभाव से विकास के लिये प्रयत्नशील है। फिर भी इस संघर्ष में सदैव जयलाभ ही नहीं करता है, वरन् कभी परास्त होकर पुन: पतनोन्मुख हो जाता है। दूसरे, इस संघर्ष में सभी आत्माएँ विजयलाभ नहीं कर पाती हैं। कुछ आत्माएँ संघर्षविमुख हो जाती हैं, तो कुछ इस आत्मात्मिक संघर्ष के मैदान में डटी रहती हैं और कुछ विजयलाभ कर स्व-स्वरूप को प्राप्त कर लेती हैं। विशेषावश्यकभाष्य में इन तीनों अवस्थाओं का सोदाहरण विवेचन है - तीन प्रवासी अपने गन्तव्य की ओर जा रहे थे। मार्ग में भयानक अटवी में उन्हें चोर मिल गए। चोरों को देखते ही उन तीनों में से एक भाग खड़ा हुआ। दूसरा उनसे डरकर भागा तो नहीं, लेकिन संघर्ष में विजयलाभ न कर सका और परास्त होकर उनके द्वारा पकड़ा गया। लेकिन तीसरा असाधारण बल और कौशल्य से उन्हें परास्त कर अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गया। विकासोन्मुख आत्मा ही प्रवासी है। अटवी मनुष्य-जीवन है। राग और द्वेष ये दो चोर हैं। जो आत्मा इन चोरों पर विजयलाभ करती है, वही अपने गन्तव्य को प्राप्त करने में सफल होती है। यहाँ पर हमें तीन प्रकार के व्यक्तियों का चित्रण मिलता है। एक, । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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