Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 75
________________ ६८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण १३. सयोगीकेवली गुणस्थान ___इस श्रेणी में आने वाला साधक अब साधक नहीं रहता, क्योंकि उसके लिये कुछ भी शेष नहीं रह जाता। लेकिन उसे सिद्ध भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी आध्यात्मिक पूर्णता में अभी कुछ कमी है। अष्टकर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय ये चार घाती कर्म तो क्षय हो ही जाते ... हैं, लेकिन चार अघाती कर्म शेष रहते हैं। आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन चार कर्मों के बने रहने के कारण आत्मा देह से अपने सम्बन्ध का परित्याग नहीं कर पाती। यहाँ बन्धन के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग इन पाँच कारणों में योग के अतिरिक्त शेष चार कारण तो समाप्त हो जाते हैं, लेकिन आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने के कारण कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार जिन्हें जैन दर्शन में 'योग' कहा जाता है, होते रहते हैं। इस अवस्था में मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएँ होती हैं और उनके कारण बन्धन भी होता है, लेकिन कषायों के अभाव के कारण टिकाव नहीं होता। पहले क्षण में बन्ध होता है, दूसरे क्षण में उसका विपाक ( प्रदेशोदय के रूप में ) होता है और तीसरे क्षण में वे कर्म परमाणु निर्जरित हो जाते हैं। इस अवस्था में योगों के कारण होने वाले बन्धन और विपाक की प्रक्रिया को कर्म-सिद्धान्त की मात्र औपचारिकता ही समझना चाहिये। इन योगों के अस्तित्व के कारण ही इस अवस्था को सयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है। यह साधक और सिद्ध के बीच की अवस्था है। इस अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैनदर्शन में अर्हत्, सर्वज्ञ एवं केवली कहा जाता है। यह वेदान्त के अनुसार जीवनमुक्ति या सदेह-मुक्ति की अवस्था है। १४. अयोगीकेवली गुणस्थान सयोगीकेवली गुणस्थान में यद्यपि आत्मा आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेती है, फिर भी आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने से शारीरिक उपाधियाँ (कष्ट) तो लगी रहती हैं। प्रश्न होता है कि इन शारीरिक उपाधियों को समाप्त करने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता ? इसका एक उत्तर यह है कि बारहवें गुणस्थान में साधक की सारी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, उसमें न जीने की कामना होती है, न मृत्यु की। वह शारीरिक उपाधियों को नष्ट करने का भी कोई प्रयास नहीं करता। दूसरे साधना के द्वारा उन्हीं कर्मों का क्षय हो सकता है जो उदय में नहीं आये हैं अर्थात् जिनका फल-विपाक प्रारम्भ नहीं हुआ है। जिन कर्मों का फलभोग प्रारम्भ हो जाता है उनको फलभोग की मध्यावस्था में परिवर्तित या क्षीण नहीं किया जा सकता। वेदान्तिक विचारणा में भी यह तथ्य स्वीकृत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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