Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 79
________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कर्मप्रकृतियों का बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उपशम, क्षयोपशम और क्षय होता है। ७२ जैन दर्शन के अनुसार कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ लौह पिण्ड में समाविष्ट अग्नि के समान एक दूसरे में समाविष्ट हो जाना ही बन्ध है। बन्ध के पश्चात् और अपने फलविपाक अर्थात् उदय के पूर्व कर्मों की जो अवस्था होती है उसे कर्म का सत्ताकाल कहते हैं। जब कर्मवर्गणा के पुद्गल अपने सत्ताकाल के समाप्त होने पर अपना फल प्रदान करते हैं तो यह अवस्था उदय के नाम से जानी जाती है । किन्तु कर्मवर्गणा के पुद्गलों को उनके सत्ताकाल के समाप्त होने के पूर्व ही उदय में लाकर उनके फलों का भोग कर लेना उदीरणा कहा जाता है। उदय काल-लब्धि के परिपूर्ण होने पर स्वतः ही होता है, उसमें व्यक्ति का अपना कोई प्रयत्न या पुरुषार्थ नहीं होता है, किन्तु उदीरणा कालावधि के पूर्व वैयक्तिक पुरुषार्थ से होती है । उदय या उदीरणा के पश्चात् जो कर्म निर्जरित या समाप्त हो जाते हैं उन्हें क्षय कहा जाता है। किन्तु कभी-कभी व्यक्ति अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उदय में आने वाले कर्मों को अपना विपाक या परिणाम देने से रोक देता है तो वह अवस्था उपशम कहलाती है। कर्मों के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उपशम और क्षय की यह चर्चा यहाँ इसलिये आवश्यक है कि इसी के आधार पर जैन कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान सिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को समझा जा सकता है, क्योंकि कोई भी आत्मा गुणस्थानों की इन अभिन्न अवस्थाओं में आरोहण तभी कर सकता है, जब वह विभिन्न कर्मप्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम करता है । किस गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा और क्षय होता है इसे समझने के पूर्व जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार कर्मों की बन्ध, सत्ता, उदय और उदीरणा योग्य कर्मप्रकृतियाँ कौन-कौन सी और कितनी हैं, इसे समझ लेना आवश्यक है। बन्ध - योग्य १२० कर्म - प्रकृतियाँ - ( १ ) ज्ञानावरण कर्म की पाँच कर्म प्रकृतियाँ - १. मतिज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मन:पर्ययज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण। ( २ ) दर्शनावरण कर्म की नौ कर्म प्रकृतियाँ १. चक्षुदर्शनावरण, २. अचक्षुदर्शनावरण, ३. अवधिदर्शनावरण, ४. केवलदर्शनावरण, ५. निद्रा, ६. निद्रानिद्रा, ७. प्रचला, ८. प्रचलाप्रचला और ९. स्त्यानर्द्धि । १. सातावेदनीय और ( ३ ) वेदनीय कर्म की दो कर्म - प्रकृतियाँ २. असातावेदनीय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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