Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 59
________________ षष्ठ अध्याय गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा जैन- विचारधारा में आध्यात्मिक विकास क्रम की चौदह अवस्थाएँ मानी गयी हैं १. मिथ्यात्व, २. सास्वादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देश - विरत सम्यग्दृष्टि, ६ प्रमत्तसंयत, ७ अप्रमत्तसंयत ( अप्रमत्तविरत ), ८. अपूर्वकरण, ९ अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगीकेवली और १४. अयोगीकेवली । प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का क्रम दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पाँचवें से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यग्चारित्र से सम्बन्धित है । तेरहवाँ एवं चौदहवाँ गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है। इनमें भी दूसरे और तीसरे गुणस्थानों का सम्बन्ध विकास-क्रम से न होकर, मात्र चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान की ओर होने वाले पतन को सूचित करने से है। इन गुणस्थानों का संक्षिप्त परिचय यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है । १. मिथ्यात्व गुणस्थान इस अवस्था में आत्मा यथार्थ ज्ञान और सत्यानुभूति से वंचित रहती है । आध्यात्मिक दृष्टि से यह आत्मा की बहिर्मुखी अवस्था है। इसमें प्राणी यथार्थबोध के अभाव के कारण बाह्य पदार्थों से सुखों की प्राप्ति की कामना करता है और उसे आध्यात्मिक या आत्मा के आन्तरिक सुख का रसास्वादन नहीं हो पाता । अयथार्थ दृष्टिकोण के कारण वह असत्य को सत्य और अधर्म को धर्म मानकर चलता है। । वह दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह लक्ष्य-विमुख हो भटकता रहता है और अपने गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर पाता। यह आत्मा की अज्ञानमय अवस्था है। नैतिक दृष्टि से इस अवस्था में प्राणी को शुभाशुभ या कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं होता है । वह नैतिक विवेक से तो शून्य होता ही है, नैतिक आचरण से भी शून्य होता है। इसी बात को पारिभाषिक शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा दर्शनमोह और चारित्रमोह की कर्म - प्रवृत्तियों से प्रगाढ़ रूप से जकड़ी होती है। मानसिक दृष्टि से मिथ्यात्व गुणस्थान में प्राणी तीव्रतम क्रोध, मान, माया और लोभ ( अनन्तानुबन्धी कषाय ) के वशीभूत रहता है । वासनात्मक प्रवृत्तियाँ उस पर पूर्ण रूप से हावी होती हैं जिनके कारण वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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