Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 67
________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ऐसी दशा में भी साधक अशुभाचरण और अशुभ मनोवृत्तियों पर पूर्णत: विजय प्राप्त करने के लिये दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने का प्रयास करता रहता है। जब-जब वह कषायादि प्रमादों पर अधिकार कर लेता है तब-तब वह आगे की श्रेणी ( अप्रमत्त संयत गुणस्थान ) में चला जाता है और जब-जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी होते हैं तब-तब वह उस आगे की श्रेणी से पुन: लौटकर इस श्रेणी में आ जाता है। वस्तुत: यह उन साधकों का विश्रान्ति-स्थल है जो साधना-पथ पर प्रगति तो करना चाहते हैं, लेकिन यथेष्ट शक्ति के अभाव में आगे बढ़ नहीं पाते। अत: इस वर्ग में रहकर विश्राम करते हुए शक्ति-संचय करते हैं। इस प्रकार यह गुणस्थान अशुभाचरण से अधिकांश रूप में विरत है। इसमें अशुभ मनोवृत्तियों को क्षीण करने का भरसक प्रयास किया जाता है। इस अवस्था में प्राय: आचरण-शुद्धि तो हो जाती है, लेकिन विचार (भाव) शुद्धि का प्रयास चलता रहता है। इस गुणस्थानवर्ती साधनापथ में परिचारण करते हुए साधक आगे बढ़ना तो चाहता है, लेकिन प्रमाद उसमें अवरोधक बना रहता है। ऐसे साधकों को साधना के लक्ष्य का भान तो रहता है, लेकिन लक्ष्य के प्रति जिस सतत जागरुकता की अपेक्षा है, उसका उनमें अभाव होता है।। श्रमण छठे और सातवें गुणस्थान के मध्य परिचारण करते रहते हैं। गमनागमन, भाषण, आहार, निद्रा आदि जैविक आवश्यकताओं एवं इन्द्रियों की अपने विषय की ओर चंचलता के कारण जब-जब वे लक्ष्य के प्रति सतत जागरुकता नहीं रख पाते तब-तब वे इस गुणस्थान में आ जाते हैं और पुनः लक्ष्य के प्रति जागरुक बनकर सातवें गुणस्थान में चले जाते हैं। वस्तुत: इस गुणस्थान में रहने का कारण देहभाव होता है। जब भी साधक में देहभाव आता है, वह सातवें से इस छठे गुणस्थान में आ जाता है। फिर भी इस गुणस्थानवर्ती आत्मा में मूर्छा या आसक्ति नहीं होती। ___गुणस्थान में आने के लिये साधक को मोह-कर्म की निम्नलिखित पन्द्रह प्रकृतियों का क्षय, उपशम, क्षयोपशम करना होता है - १. स्थायी प्रबलतम ( अनन्तानुबन्धी ) क्रोध, मान, माया और लोभ, २. अस्थायी किन्तु अनियन्त्रणीय ( अप्रत्याख्यानी ) क्रोध, मान, माया और लोभ, ३. नियन्त्रणीय ( प्रत्याख्यानी ) क्रोध, मान, माया और लोभ, ४. मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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