Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 61
________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण आत्मा पूर्ववर्णित यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनावृत्तिकरण नामक ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया करता है और उसमें सफल होने पर विकास के अगले चरण सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है । ५४ २. सास्वादन गुणस्थान यद्यपि सास्वादन गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जा सकता है, लेकिन वस्तुत: यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है । कोई भी आत्मा इसमें प्रथम गुणस्थान से विकास करके नहीं आती, वरन् जब आत्मा ऊपर की श्रेणियों से पतित होकर प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है तो इस अवस्था से गुजरती है । पतनोन्मुख आत्मा को गुणस्थान तक पहुँचने की मध्यावधि में जो क्षणिक ( छ: अवली ) समय लगता है, वही इस गुणस्थान का स्थितिकाल है। जिस प्रकार फल को वृक्ष से टूटकर पृथ्वी पर पहुँचने में समय लगता है, उसी प्रकार आत्मा की गिरावट में जो समय लगता है वही समयावधि सास्वादन गुणस्थान के नाम से जानी जाती है। जिस प्रकार मिष्ठान्न खाने के अनन्तर वमन होने पर वमित वस्तु का एक विशेष प्रकार का आस्वादन होता है, उसी प्रकार यथार्थ बोध हो जाने पर मोहासक्ति के कारण जब पुनः अयथार्थता ( मिथ्यात्व ) का ग्रहण किया जाता है तो उसे ग्रहण करने के पूर्व थोड़े समय के लिये उस यथार्थता का एक विशिष्ट प्रकार का अनुभव बना रहता है। यही पतनोन्मुख अवस्था में होने वाला यथार्थता का क्षणिक आभास या आस्वादन 'सास्वादन गुणस्थान' है। ३. सम्यक् - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान या मिश्र गुणस्थान यह गुणस्थान भी विकास श्रेणी का सूचक न होकर पतनोन्मुख अवस्था काही सूचक है, जिसमें अवक्रान्ति करने वाली पतनोन्मुख आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर आती है । यद्यपि उत्क्रान्ति करने वाली आत्माएँ भी प्रथम गुणस्थान से निकलकर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकती हैं यदि उन्होंने कभी भी चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श किया हो । जो चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध कर पुन: पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती हैं वे ही आत्माएँ अपने उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आती हैं। लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व ( यथार्थ बोध ) का स्पर्श नहीं किया है वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में जाती हैं। क्योंकि संशय उसे हो सकता है जिसे यथार्थता का कुछ अनुभव हुआ है। यह एक अनिश्चय की अवस्था है, जिससे साधक यथार्थ बोध के पश्चात् संशयावस्था को प्राप्त हो जाने के कारण सत्य और असत्य के मध्य झूलता रहता है। नैतिक दृष्टि से कहें तो यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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