Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 63
________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण यह तीसरा गुणस्थान भी अविकास की अवस्था ही है; क्योंकि जब तक व्यक्ति में यथार्थ बोध या शुभाशुभ के सम्बन्ध में सम्यक् विवेक जागृत नहीं हो जाता है, तब तक वह नैतिक आचरण नहीं कर पाता है। इस तीसरे गुणस्थान में शुभ और अशुभ के सन्दर्भ में अनिश्चय की अवस्था अथवा सन्देहशीलता की स्थिति रहती है, अतः इस अवस्था में नैतिक आचरण की सम्भावना नहीं मानी जा सकती । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस तृतीय मिश्र गुणस्थान में अर्थात् अनिश्चय की अवस्था में मृत्यु नहीं होती, क्योंकि आचार्य नेमिचन्द्र का कथन है कि मृत्यु उसी स्थिति में सम्भव है जिसमें भावी आयुकर्म का बन्ध हो सके। इस तृतीय गुणस्थान में भावी आयुकर्म का बंध नहीं होता, अतः मृत्यु भी नहीं हो सकती । इस सन्दर्भ में डॉक्टर कलघाटगी कहते हैं कि इस अवस्था में मृत्यु सम्भव नहीं हो सकती, क्योंकि मृत्यु के समय इस संघर्ष की शक्ति चेतना में नहीं होती है, अतः मृत्यु के समय यह संघर्ष समाप्त होकर या तो व्यक्ति मिथ्या दृष्टिकोण को अपना लेता है या सम्यक् दृष्टिकोण को अपना लेता है। यह अवस्था अल्पकालिक होती है, लेकिन अल्पकालिकता केवल इसी आधार पर है कि मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमा रेखाओं का स्पर्श नहीं करते हुए संशय की स्थिति में अधिक नहीं रहा जा सकता। लेकिन मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमाओं का स्पर्श करते हुए यह अनिश्चय की स्थिति दीर्घकालिक भी हो सकती है। गीता अर्जुन के चरित्र के द्वारा इस अनिश्चय की अवस्था का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करती है। आंग्ल साहित्य में शेक्सपीयर ने अपने हेमलेट नामक नाटक में राजपुत्र हेमलेट के चरित्र का जो शब्दांकन किया है वह भी सत् और असत् के मध्य अनिश्चयावस्था का अच्छा उदाहरण है। ४ ५६ ४. अविरत सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की वह अवस्था है जिसमें साधक को यथार्थता का बोध या सत्य का दर्शन हो जाता है । वह सत्य को सत्य के रूप में और असत्य को असत्य के रूप में जानता है । उसका दृष्टिकोण सम्यक् होता है, फिर भी उसका आचरण नैतिक नहीं होता है । वह अशुभ को अशुभ तो मानता है, लेकिन अशुभ के आचरण से बच नहीं पाता । दूसरे शब्दों में वह बुराई को बुराई के रूप में जानता तो है, फिर भी पूर्व संस्कारों के कारण उन्हें छोड़ नहीं पाता है। उसका ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् ( यथार्थ ) होने पर भी आचरणात्मक पक्ष असम्यक् होता है। ऐसे साधक में वासनाओं पर अंकुश लगाने की या संयम की क्षमता क्षीण होती है । वह सत्य, शुभ या न्याय के पक्ष को समझते हुए भी असत्य, अन्याय या अशुभ का साथ छोड़ नहीं पाता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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